*पवारी बोली- भाषा में उपलब्ध है प्रचुर मात्रा में लोक साहित्य*
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*समाज सदस्यों द्वारा साहित्य सृजन में रुचि न लेने के कारण पवारी बोली- भाषा
का विकास संभव न हो सका*
बीसवीं सदी पवारी बोली- भाषा के संरक्षण
एवं संवर्धन के रूप में जानी जाती है जिसमें पवारी लोक साहित्य का संरक्षण एवं
संवर्धन किया गया। 21वीं सदी में पवारी बोली-भाषा में साहित्य
सृजन पर जोर दिया जाने लगा है।
1980 के दशक में स्व डॉक्टर नाथूराम जी कालभोर पीएचडी,
डी लिट आगरा द्वारा *"कालभूत"*
शीर्षक से समाज की पहली एक पारिवारिक पत्रिका प्रकाशित की जाती थी जिसमें पवारी
लोक साहित्य देखने- पढ़ने को मिलता था। लगभग उसी समय स्व श्री मुन्नालाल देवासे
द्वारा पवारी बोली-भाषा में सृजित लोक साहित्य का संकलन और सर्जन किया जाता था
जिसे समय- समय पर आकाशवाणी में प्रसारित और अखबारों में प्रकाशित किया जाता था।
स्व श्री गोपीनाथ कालभोर खंडवा द्वारा 1984 में "भोज पर्णिका" शीर्षक से एक त्रैमासिकी का प्रकाशन किया जाता था
जिसमें पवारी बोली-भाषा में सृजित लोक साहित्य का प्रचार-प्रसार किया जाता था।
लगभग इसी समय स्व श्री विट्ठल नारायण जी
चौधरी द्वारा सृजित पवारी बोली-भाषा की रचनाओं का आकाशवाणी से प्रसारण किया जाता
था। डॉक्टर ज्ञानेश्वर जी टेंभरे द्वारा संपादित
पत्रिका *"पवार संदेश" में* भी यदा-कदा पवारी में रचनाएं प्रकाशित करने
के उदाहरण देखने -पढ़ने को मिले हैं। फरवरी 2019 में प्रथम पवारी साहित्य सम्मेलन तिरोड़ा
के उद्घाटन अवसर पर पवारी बोली-भाषा पर केंद्रित संकलन डा ज्ञानेश्वर टेंभरेजी के लेखन-संपादन में प्रकाशित किया गया है।श्री जयपाल
पटलेजी नागपुर द्वारा धार्मिक और आध्यात्मिक साहित्य का पवारी बोली-भाषा में
अनुवाद किया गया है और प्रकाशित किया गया है।
श्री वल्लभ डोंगरे भोपाल द्वारा 1980 से पवारी बोली -भाषा के संरक्षण एवं संवर्धन
हेतु कार्य किया जा रहा है। "सुखवाड़ा" त्रैमासिक पत्र में भी पवारी
बोली-भाषा की कई रचनाएं प्रकाशित की गई है। बाद में "सुखवाड़ा" मासिक कर
दिया गया जिसके द्वारा पवारी शब्दकोश, पवारी मुहावरे, पवारी लोकोक्ति, पवारी कहावतें, पवारी पहेलियां और पवारी बोली -भाषा और
संस्कृति पर केंद्रित कई पुस्तकें प्रकाशित की गई हैं। अब "सुखवाड़ा"
दैनिक कर दिया गया है जो पवारी बोली- भाषा और संस्कृति के संरक्षण- संवर्धन हेतु
प्रतिबद्ध है।
श्रीमती पार्वती बाई देशमुख नागपुर द्वारा
भी पवारी बोली में लोक साहित्य को स्वर दिए गए हैं। श्रीमती पार्वती बाई देशमुख
निरक्षर हैं जिनके लोक साहित्य को उन्हीं के पुत्र श्री सुरेश देशमुख द्वारा लिपिबद्ध कर पुस्तकाकार में
प्रकाशित किया गया है। श्रीमती पार्वती बाई देशमुख के योगदान को देखते हुए उन्हें विदर्भ रत्न सम्मान से सम्मानित किया गया है।
वर्ष 2019 में डॉ ज्ञानेश्वर टेंभरे जी द्वारा पवारी
साहित्य संस्कृति एवं कला मंडल का गठन कर पवारी बोली-भाषा के उन्नयन हेतु सार्थक कदम उठाया गया है। उनके
इस विचार को श्री लखन सिंह कटरे जी ,श्री देवेंद्र
चौधरी द्वारा पल्लवित- पुष्पित किया जा रहा है। श्री तुफान सिंह पारधी द्वारा
पवारी बोली मैं पीएचडी और अन्य शोध कार्य किए जा रहे हैं। डॉक्टर शारदा कौशिक द्वारा
पवारी बोली पर शोध किया गया है। पुष्पक देशमुख मुलताई पवारी लोकगीत पर केंद्र
सरकार द्वारा फेलोशिप प्रदान की गई है।
डॉ मंजू अवस्थी द्वारा पवारी बोली-भाषा पर
शोध कार्य किया गया है। साथ ही डॉक्टर वर्षा खुराना द्वारा अपने मार्गदर्शन में
पवारी बोली पर शोध कार्य कराए गए हैं। डॉक्टर शारदा कौशिक को आपके मार्गदर्शन में
ही पवारी बोली -भाषा में पीएचडी अवॉर्ड हुई है।
श्री वल्लभ डोंगरे द्वारा रचित पवारी
लोकगीत
"बनन चल्या तुम
लाड़ा"शीर्षक से प्रकाशित पुस्तक के कई लोकगीत गाकर छात्र -छात्राओं ने शाला
स्तर से लेकर राज्य स्तर तक कई पुरस्कार प्राप्त किए हैं। श्री वल्लभ डोंगरे की ही
पवारी बोली की रचना "मक्या की पेरी रोटी प भेदरा की चटनी सी माय" की
ऑडियो रिकॉर्डिंग दिल्ली में लोक कला संस्कृति विभाग में श्री पुष्पक देशमुख
द्वारा प्रस्तुत करने पर उन्हें लोकगीत पर फेलोशीप अवार्ड हुई है।
यहां यह भी उल्लेखनीय है कि स्व श्री
गोपीनाथ कालभोर खंडवा द्वारा पवारी रचनाकारों की काव्य रचनाओं का संकलन किया गया
था जिसे हिन्दी ग्रंथ अकादमी भोपाल द्वारा वर्ष 2015-16 में पुस्तकाकार में प्रकाशित किया गया था।
इसी कड़ी में श्री देवेंद्र चौधरी द्वारा
मराठी काव्य गोष्ठी यवतमाल में पवारी बोली में वर्ष 2019 में प्रस्तुति देकर लोगों का ध्यान पवारी बोली-भाषा के प्रति आकर्षित किया गया
है। वर्तमान में श्री देवेंद्र चौधरी पवारी बोली के संरक्षण एवं संवर्धन हेतु सोशल
मीडिया पर पवारी बोली-भाषा में रचनाएं लिखने हेतु रचनाकारों को प्रेरित-प्रोत्साहित कर रहे हैं। इन रचनाओं का श्री लखनसिंह जी कटरे द्वारा निष्पक्ष मूल्यांकन
किया जाकर रचनाकारों को प्रेरित प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से उन्हें ई
प्रशस्ति-पत्र प्रदान किए जाते हैं। पवारी साहित्य संस्कृति और कला मंडल प्रति 3 माह में पवारी काव्य गोष्ठी का भी आयोजन करता है जिससे पवारी बोली- भाषा के
विकास में गति आई है। राष्ट्रीय भर्तृहरि-विक्रम-भोज पुरस्कार समिति द्वारा पवारी
बोली -भाषा के संरक्षण- संवर्धन हेतु किए गए सराहनीय कार्यों के लिए योगदानकर्ता
को पुरस्कृत किया जाता है।
फेसबुक और व्हाट्सएप समूह में भी समय-समय
पर पवारी बोली- भाषा की रचनाएं देखने और पढ़ने को मिल जाती है जो अपनी बोली- भाषा
और संस्कृति के प्रति प्रेम और संरक्षण की भावना ही प्रदर्शित करती है।
बोलते -बोलते बोली और खींचते-खींचते पानी आता है। मराठी में एक कहावत है-ज्या घरी आई नाई,त्या घरी काई नाई।अपनी बोली भाषा बचाकर ही हम अपनी संस्कृति को बचा सकते हैं
क्योंकि जिस घर में मां और माय बोली नहीं होती वह घर घर नहीं कहलाता। संस्कृति
विहीन व्यक्ति पशु की भांति होता है। व्यक्ति के अंदर व्यक्ति को जिंदा रखने के
लिए अपनी बोली- भाषा का ज्ञान जरूरी है।
पवारी बोली- भाषा के प्रमुख रचनाकारों में
स्व डॉक्टर नाथूराम कालभोर आगरा,
स्व श्री मुन्ना लाल देवासे भंडारा,
स्व श्री विट्ठल नारायण चौधरी नागपुर,
स्वर्गीय श्री गोपीनाथ कालभोर खंडवा,
श्री जयपाल पटलेजी नागपुर,
श्री मनराज पटले,
डॉक्टर ज्ञानेश्वर टेंभरे जी नागपुर,
श्री लखनसिंह कटरे
तिरोड़ा, श्री देवेंद्र चौधरी तिरोड़ा,
श्री वल्लभ डोंगरे भोपाल,
डॉक्टर शारदा कौशिक मुलताई,
श्रीमती पार्वती बाई देशमुख नागपुर,
डॉक्टर तुफान सिंह पारधी,
श्री शेखराम येळेकर,
श्री रणदीप बिसने,
श्री पालिकचंद बिसने,
श्री देवेंद्र रहांगडाले,
श्री आशिष अंबुले,
श्री गुसाई गिरारे पांढुर्णा,
श्री तुकाराम किंकर पांढुर्णा,
श्री युवराज हिंगवे सौंसर ,
श्री परसराम परिहार छिंदवाड़ा आदि प्रमुख हैं।
*आपका "सुखवाड़ा" ई-दैनिक और मासिक।*
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