Thursday 12 May 2022

परमार वंश की प्रमुख शाखाएं

परमार वंश 

        राजा भोज परमार वंश के नवे शासक थे । राजा भोज एक बहुत ही विद्वान, प्रतापी और शक्तिशाली शासक थे। राजा भोज एक सर्वगुण संपन्न शासक थे जिनके दरबार में कई विद्वान रहते थे। मध्य प्रदेश की वर्तमान राजधानी भोपाल को बसाने का श्रेय राजा भोज को ही जाता है। राजा भोज एक अच्छी  कवि भी थे तथा उनके राज दरबार में देश-विदेश से बड़े बड़े कवि आकर अपनी कला का प्रदर्शन करते थे।राजा भोज की मृत्यु के बाद परमार वंश को उदयादित्य ने संभाला और आगे बढ़ाया।

परमार वंश की प्रमुख शाखाएं या खांपे

        वराह, लोदरवा परमार, बूंटा परमार, चन्ना परमार, मोरी परमार, सुमरा परमार, उमट परमार, बीहल परमार,               डोडिया परमार, सोढा परमार, नबा, देवा, बजरंग, उदा, महराण, सादुल, अखैराज, जैतमल, सूरा, मधा, धोधा,              तेजमालोट, करमिया, विजैराण, नरसिंह, सुरताण, नरपाल,गंगदास, भोजराज, आसरवा, जोधा, भायल, भाभा,               हुण, सावंत, बारड, सुजान, कुंतल, बलिला, गुंगा, गहलड़ा, सिंधल, नांगल, भोयर पंवार , पोवार।

Wednesday 20 April 2022

मध्यप्रदेश के बैतूल जिले के पंवारों का इतिहास एवं वर्तमान:-

मध्यप्रदेश के बैतूल जिले के पंवारों का इतिहास एवं वर्तमान:-

          बैतूल जिले में भाट(रावजी )के मतानुसार पंवार समाज के पूर्वज धार नगरी से बैतूल आए थे। जिले में लगभग पंवारों के 200 गांव है।  बैतूल जिले के पंवार अग्निवंशी है, पहले इन्हें भोयर पंवार से भी जाना जाता था इनका गोत्र वशिष्ठ है, प्रशाखा प्रमर या प्रमार है। ये पूर्ण रूप से परमार (पंवार) राजपूत क्षत्रिय है।

 वेद में इन जातियों को राजन्य और मनुस्मृति में बाहुज, क्षत्रिय, राजपुत्र तथा राजपूत और ठाकुरों के नाम से संबोधित किया है। सभी लोग अपने भाट, रावजी, बड़वाजी (ये तीनों नाम अलग अलग एरिया में अलग अलग नाम से जाने जाते हैं, बैतूल जिले में इन्हें भाट कहते हैं ।)

इनसे  अपने वास्तविक इतिहास की जानकारी अवश्य लें ताकि आने वाली पीढ़ी को भविष्य में यह पता रहे कि वे कौन से पंवार है उनका गोत्र क्या है? हमारे वंश के महापुरूष कौन है। जब मालवा धार से पंवार, मुसलमानों से युद्ध करते हुए नर्मदा के तट  होशंगाबाद तक पहुंचे तब वहां उस समय कि परिस्थितियों के कारण सभी लोगों ने अपने जनेऊ उतारकार नर्मदा नदी में डाल दिए थे। भाट लोगों के अनुसार ये सभी परमार शाकाहारी थे, मांस मदिरे का सेवन नहीं करते थे। 

वेदिक सोलह संस्कारों को अपनाते थे किंतु समय और विषम परिस्थितियों के कारण सेना के इस समूह की टुकडिय़ां क्रमश: बैतूल, छिंदवाड़ा, सिवनी, बालाघाट, मंडला, जबलपुर, रायपुर, बिलासपुर, राजनांदगांव, भिलाई, दुर्ग तथा महाराष्ट्र के नागपुर, भंडारा गोंदिया, तुमसर, वर्धा, यवतमाल, अमरावती, बुलढाना आदि जिलों में जाकर बस गए। बैतूल और छिंदवाड़ा के पंवारों को उस समय यहां रहने वाली जातियों के लोगों ने अपनी बोली से भुईहर कहा जो अपभ्रंस होकर भोयर कहलाये। उस समय की भोगौलिक परिस्थिति तथा आर्थिक मजबूरियों के कारण ये समस्त पंवार अपने परिवार का पालन पोषण करने के चक्कर में अपने मूल रीति रिवाज और मूल संस्कार भूलते चले गए। 

सभी ओर क्षेत्रीय भाषा का प्रभाव बढ़ गया इसलिए इन सभी क्षेत्रों में वहां की स्थानीय भाषा का अंश पंवारों की भाषा में देखने आता है किंतु आज भी पंवार समाज की मातृभाषा याने बोली में मालवी भाषा और राजस्थानी भाषा के अधिकांश शब्द मिलते है।   और सभी वर्ण के लोगों की उपत्ति किसी न किसी ऋषि के माध्यम से ही हुई है। हमें गर्व है कि हमारी उत्पत्ति अग्निकुंड से हुई है। और हमारे उत्पत्ति कर्ता ऋषियों में श्रेष्ठ महर्षि वशिष्ठ है, इसलिए हमारा गोत्र वशिष्ठ है। 


बैतूल जिले के पंवारों के गांव की सूची 

बैतूल तहसील क्षेत्र के गांव :-

1. बैतूल नगरीय क्षेत्र 2. बैतूलबाजार नगरीय क्षेत्र, 3. बडोरा 4. हमलापुर, 5. सोनाघाटी, 6. दनोरा, 7. भडूस, 8. परसोड़ा 9. ढोंडबाड़ा, डहरगांव, बाबर्ई, डोल, महदगांव, ऊंचागोहान, रातामाटी, खेड़ी सांवलीगढ़, सेलगांव, रोंढा, करजगांव, नयेगांव, सावंगा, कराड़ी, भोगीतेढ़ा, भवानीतेढ़ा, लोहारिया, सोहागपुर, बघोली, सापना, मलकापुर, बाजपुर, बुंडाला, खंडारा, बोड़ीबघवाड़, ठेसका, राठीपुर, खेड़ी भैंसदेही, शाहपुर, भौंरा, घोड़ाडोंगरी, पाथाखेड़ा, शोभापुर, सारणी क्षेत्र, भारत भारती, जामठी, बघडोना, झगडिय़ा, कड़ाई, मंडई, गजपुर, बाजपुर, पतरापुर, सांपना, खेड़लाकिला, चिखल्या (रोंढा), कोरट, मौड़ी, कनाला, बयावाड़ी

मुलताई तहसील क्षेत्र के गांव:- 

मुलताई नगरीय क्षेत्र, थावर्या, कामथ, चंदोराखुर्द, करपा, परसठानी, देवरी, हरनया, मेलावाड़ी, बूकाखेड़ी, चौथिया, हरदौली, शेरगढ़, मालेगांव, कोल्हया, हथनापुर, सावंगा, डउआ, घाट बिरोली, बरखेड़, पिपरिया, डोब, सेमरिया, पांडरी सिलादेही, जाम, खेड़ी देवनाला, चिचंडा, निंबोरी चिल्हाटी, कुंडई, खंबारा, मल्हारा, कोंढर, जूनापानी, सेमझर, डहरगांव, चैनपुर, तुमड़ी, डोल, मल्हाराखापा, पिपरपानी, नीमदाना, व्हायानिडोरनी, छोटी अमरावती, छिंदखेड़ा, गाडरा, सोमगढ़, झिलपा, नंदबोही, दुनावा, दुनाई, गांगई, मूसाखापा, खल्ला, सोनेगांव, सिपावा, भैंसादंड, मलोलखापा, बालखापा, घाट पिपरिया, सरई, काठी, हरदौली, लालढाना, खामढाना, लीलाझर, बिसखान, मयावाड़ी, थारी, मुंडापार, चिखलीकला, कपासिया, लाखापुर, हिवरा, पारबिरोली, खैरवानी, सावंगी, लेंदागोंदी, मोरखा, तरूणाबुजुर्ग, डुडरिया, पिडरई, जौलखेड़ा, मोही, हेटीखापा, परमंडल, नगरकोट, दिवट्या, बुंडाला, हेटी, खतेड़ाकला, हरनाखेड़ी, अर्रा, बरई, जामुनझिरी, टेमझिरा, बाड़ेगांव, केकड्या, ऐनस, निर्गुण, सेमझिरा, पोहर, सांईखेड़ा, बोथया, ब्राम्हणवाड़ा, खेड़लीबाजार, बोरगांव, बाबरबोह, महतपुर, माथनी, छिंदी, खड़कवार, केहलपुर, तरोड़ा, सोड्ंया, रिधोरा, सोनोरी, सेमरया, जूनावानी, चिचंडा, हुमनपेट, बानूर, खेड़ी बुजुर्ग, उभारिया, खापा, नयेगांव, ससुंद्रा, पंखा, अंधारिया,  सलाई ढाना

आमला नगरीय क्षेत्र - 

जंबाड़ा, बोडख़ी, नरेरा, छिपन्या, पिपरिया, महोली, उमरिया, सोनेगांव, बोरदेही, चिचोली, भैंसदेही, गुबरैल, डोलढाना आदि। 

बैतूल जिले के वर्तमान में पंवारों के भिन्न-भिन्न सरनेम (उपनाम) जिसे आज ये लोग गोत्र कहते है निम्नानुसार है-

परिहार/पराड़कर, पठाड़े, बारंगे/ बारंगा, बुआड़े/बुवाडे,
पिंजारे, गिरहारे/गिरारे, कालभोर/कालभूत,चौधरी,चिकाने,माटे/माटेकर, ढोंडी,गाडरी/गाडरे, रोलक्या,किरणकार/किनकर/किरंजकार, घाघरे, रबड़े/रबड्या, भोभाट/बोबडे, बड़े,दुखी,बारबुहारे, मुनी,बरखेड्या,बागवान,देवासे/देवास्या, फरकाड्या/फरकाड़े, नाडि़तोड़,भादे/भाद्या, कड़वे/कड़वा, रमधम,राऊत/रावत,करदात्या/करदाते, हजारे/हजारी,गाड़क्या/गाकरे,खरफुस्या/खरफूसे/खसखुसे, खौसी/खवसे/कौशिक, पाठेकर/पाठा, मानमोड्या/मानमोड़े, हिंगवे/हिंगवा, डहारे/डाहरे/डालू, डोंगरदिए/डोंगरे, डिगरसे,ओमकार/उकार, टोपल्या/टोपले, गोंदर्या, धोट्या/धोटे, ठावरी, ठूसी,लबाड़,ढूंढाड्या, ढोबारे,गोर्या/गोरे, काटोले/काटवाले, आगरे,डोबले/ढोबारे      कोलया, हरने, ढंडारे/डंडारे/दंडारे, तागड़ी, सेंड्या,गढढे,वाद्यमारे, सबाई, कोडले/कोरडे, कासलेकर/कसारे


पंवारों का मूल गौत्र तो वशिष्ठ ही है ऊपर दिए गए सभी सरनेम या उपनाम है।
    हमारे भाट(राव जी) श्री भैरोसिंह उर्फ बाबूलाल का संपर्क नंबर मोबा-9928079416 राजस्थान। 

उपरोक्त जानकारी प्रकाशन दिनांक तक प्राप्त ग्रामों के नाम तथा सरनेम इस लेख में दिए गए है। भूल-चूक के लिए आप शंकर पवार पत्रकार को मोबाइल-9479363679 पर अपना सुझाव दे सकते हैं।सरनेम, और गांव के नाम में त्रुटि हो सकती है।आप भी समाज के जिम्मेदार व्यक्ति हैं, सही जानकारी देने की कृपा करें।
 स्त्रोत:-

लेखक शंकर पवार पत्रकार 
संपादक स्वतंत्र अभिव्यक्त                      मोबा-9479363679                                                           बैतूल म.प्र

पँवार/परमार वंश के दानवीर, महाप्रतापी , शौर्यवान राजा, जगदेव पंवार का इतिहास-



महानदानियो मे दो चार नाम ही प्रमुखता से लिए जाते हैं जिनमें जगदेव पँवार का नाम भी आता है । बलि ने अपने राज्य का दान दिया, कर्ण रोज कई मण सौना दान करता था लेकिन कलियुग मे सिर्फ जगदेव के बारे मे ही यह कथा प्रचलित है उन्होंने ने अपने राज्य और शीश दोनों का दान किया था । इसलिए कलियुग मे जगदेव से बड़ा दानी किसे भी नहीं माना गया है ।

 संवत् इग्यारह इकांणवै, चैततीज रविवार ।
 सीस कंकाली भट्टनै, जगदेव दियो उतारि ।।

जगदेव महान परमार शासक उदयादित्य के छोटे पुत्र थे पिता इन्हें राज्य सौपना चाहते थे लेकिन बड़े भाई के रहते राजा बनने मे पाप लगता हैं यह सोचकर राज का त्याग कर गुलबर्गा (कर्नाटक ) चले गये थे । वहाँ के राजा विक्रमादित्य षष्ठ ने उन्हें बहुत सम्मान दिया और अपने भाई के समान मानता था ।

जगदेव महाराज का दूसरा सबसे महत्वपूर्ण दान का प्रसंग शीशे दान का आता है । यह दान जगदेव ने गुजरात के शासक चालुक्य सिद्धराज जयसिंह के काल मे दिया था ।

महाराज विक्रमादित्य के नगरी में उनके वंशज श्री उपेन्द्र परमार ने परमार वंश की स्थापना ने ८०० ईशवी में स्थापना की थी I महाराज उपेन्द्र के बाद महाराज मुंज और चक्रवर्ती राजा भोज ने परमार/पंवार वंश की पराकाष्ठा चरम पर पंहुचा दी राजा भोज ने मध्यभारत के राजवंशो जैसे कलचुरि राजवंश- रतनपुर , गोंड, हैहय, से अच्छे सम्बन्ध रखने की कोशिश की और इन क्षेत्रो पर सीधा नियंत्रन नही रखा I उनकी मृत्यु के पश्चात परमार राजवंश पर जैसे काले बदल छा गए . इसके बाद उनके भतीजे राजा जयसिम्हा ( १०५५ -१०६० ईशवी ) के हार के बाद ऐसा लगा की मनो परमार वंश समाप्त हो गया. उनके भाई राजा उदयादित्य देव पंवार ( १०६० -१०८७ ईशवी ) ने मालवा को पून: संभल कर चालुक्य , होयसल, एंड कलचुरि राजाओ से मालवा की रक्षा कीI उन्होंने धार के पून;स्थापित कर सोने के सिक्के जारी किये. महराज उदयादित्य देव पंवार ने विदिशा जिले के उदैपुर और मांडू नामक स्थानो पर उदयेश्वर मंदिर की स्थापना की I राजा उदयादित्य देव पंवार की दो रनिया थी I पहली रानी सोलन्किनी देवी और दूसरी रानी वघेलिनी देवी थी I 

रानी सोलन्किनी देवी से तीन पुत्र और दो पुत्रिया तथा रानी वघेलिनी देवी से एक पुत्र राजा रणछोड़ देव / रांधेल्ला हुए जिनके वंसज बिहार के डुमराओ , जगदीशपुर और बक्सर के राजा हुए I रानी सोलन्किनी के तीन पुत्र राजा लक्ष्मणदेव ( १०८७-१०९७ ईशवी ), राजा नर्वरमानदेव पंवार ( १०९७-११३४ ईशवी) और राजा जगदेव पंवार बाद में परमार वंश के गौरव को चरम पर ले गए. १०९७ ईश्वी में राजा नरवर्मन देव पंवार धार के राजा बने और उन्होंने अपने भाई राजा लक्ष्मण देव पंवार को विदर्भ का राजा बना दिया I 

उस समय नगरधन/नन्दिवंधन विदर्भ की राजधानी थी, महराज लक्ष्मणदेव देव पंवार के समय नगरधन मालवा की दूसरी राजधानी के रूप में विकसित हुई I महाराज लक्ष्मण देव पंवार ने मध्यभारत में वास्तविक परमार वंश की नीव राखी थी I वर्तमान गोंदिया, बालाघाट, सिवनी, भंडारा, चंद्रपुर, वर्धा, छिंदवाड़ा, अमरावती, यवतमाळ, आदि क्षतरो तक परमार वंश का वास्तविक शाशन हो चूका था I
महाराज उदयदिय्या देव पंवार के तीसरे पुत्र युवराज जगदेव शुरू में गुजरात में सोलंकी राजा जयसिम्हा सिद्धराजा के साथ सोलंकी राजवंश के लिए अनेक युद्धः लड़े और विजय प्राप्त की Iओ वापस गुजर्Iत आये और उनके पिता राजा उदयादित्य ने उन्हें राजा बनाना चाहा किन्तु आंतरिक पारिवारिक उलझनों के कारन अपना राजयपाठ का त्याग कर भाई नरवर्मन देव को राजा बना दिया. राजा जगदेव विदर्भ राज्य की ओर चले गए. 

मध्यभारत में उस समय के शक्तिशाली राजा कल्याणी चालुक्य राजा विक्रमादित्य VI ( १०७६-११२६ ईशवी) की सेनाप्रमुख बन गए और उन्हें पश्चिमी विदर्भ का चार्ज दिया गया I इस राजा जगदेव ने अपनी बुद्धि, पराक्रम और शक्ति से आंध्र, डोरसमुद्रा और अर्बुदा पर्वत के क्षेत्र को जीत लिया. इशके पश्चात उन्होंने कर्नाटक के राजा किंग कर्ण, आंध्र के राजा, चक्रदुर्गा( चित्रकोट , बस्तर वर्तमान छतीसगृह ) और डोरसमुद्रा के राजा होयसल के पराजित किया ी

११२६ में कल्याणी चालुक्य राजा विक्रमादित्य VI की मृत्यु के पश्चात स्वयं स्वंत्र राजा बनकर इस क्षेत्र में स्वंत्र पंवार राजवंश की स्थापना की I उन्होंने अपनी राजधानी गढ़ चाँदुर ( वर्तमानं राजुरा तालुका, जिला चंद्रपुर महाराष्ट्र) को बनाया I इनके पुरवा राजा लक्ष्मणदेव पंवार ने अपनी राजधानी नगरधन को बनायीं थीी

राजा जगदेव ने पंवार वंश का राज्यपथ गड़चांदुर में स्थानांतरित कर लिया. यह वह क्षेत्र था जन्हा से जगदेव पंवार आंध्र, बस्तर, कर्नाटक, विदर्भ और मध्यभारत के अन्य क्षेत्रो पर आसानी से नियंत्रण रखा सके. इनका मुख्य नियंत्रण वाले क्षेत्र बुलढाणा, अकोला, अमरावती, नागपुर, वर्धा, यवतमाळ ,चंद्रपुर, भंडारा, गोंदिया, और दक्सिनी वर्तमानं मध्यप्रदेश के जिले बालाघाट, सिवनी, छिंदवाड़ा,बैतूल से लेकर मालवा तक थे I
राजा जगदेव ने सात प्रकार के सोने के सिक्के चलाये थे जो नागपुर के केंद्रीय संग्रहालय और हैदराबाद के संग्रहाल में सुरक्षित है I 
कुछ इतिहासकार राजा जगदेव पंवार के उत्तर भारत में बसने की बात कहते है जिन्हीने १०९४ ईशवी में अखनूर में बसने की बात कहते है. इसके बाद इस जगह का नाम वराट नगरी हो गया जिस जगह राजा जगदेव रुके थे उस जगह को अम्बरी कहा गया और इनकी अगली पीडियो को अम्बा रयान कहा गया. राजा जगदेव का क्षेत्र उत्तर, पश्चिम, मध्य और दक्षिण भारत तक फैला हुआ था, 
इतिहासकारो में भले ही मतभेद हो पर राजा भोज के भतीजे महराज जगदेव को आज भी महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, छतीसगृह, गुजरात, राजस्थान, जम्मू कश्मीर, उत्तराखंड, हिमाचलप्रदेश आदि राज्यों में आज भी पूजा जाता है. इनका कार्यक्षेत्र पुरे भारत में फैला था और वे किसी एक जगह पर स्थिर नहीं थे ी

राजा जगदेव की मर्त्यु ११५१ ईशवी के आसपास माना जाता है I उनकी मृत्यु के पस्चात उनके वंशज राजा जगदेव II ने १२ शताब्दी के मध्य तक विदर्भ में शाशन किया किन्तु वे ज्यादा लोकप्रिय नहीं हो सके. बाद में विदर्भ क्षेत्र के पूर्वी और उत्तरी क्षेत्र पर रतनपुर के गोंड राजाओ का कब्ज़ा हो गया. वाकाटक राजवंश के बाद पंवार राजवंश ही सबसे शाक्तिशाली हिन्दू राजवंश रहा पर इतिहासकारो ने विदर्भ के इस महान इतिहास के भुला दिया.

जय महाराज जगदेव पँवार 
जय अग्निवंशीय क्षत्रिय पँवार/परमार राजवंश

अग्निवंशी पंवार

2500 वर्ष पूर्व पवार पंवार (परमार) जाति की उत्पत्ति माउंटआबू (राजस्थान) में अग्निकुंड से हुई। तत्कालीन दानव दैत्यों से परेशान ऋषि-मुनियों ने महर्षि वशिष्ठ के मार्गदर्शन में एक अग्निकुंड तैयार किया और अग्नि प्रज्जवलित कर एक मानय निकाला। इसका नाम परमार रखा और इसे संतों की रक्षा का दायित्व सौंपा। इसके बाद दूसरा मानव पैदा किया और इसका नाम सौलंकी तथा तीसरे मानव को पैदा कर उसका नाम चालुक्य रखा। इस प्रकार ये सभी  अग्निवंशीय व इनके वंशज  परमार कहलाए। गोत्र का अभिप्राय उत्पत्ति से होता है और परमारों की उत्पत्ति वशिष्ठ द्वारा की गई है, इसीलिए इनका गौत्र वशिष्ठ है तथा कुलदेवी धार की गढ़कालिका है।

इस जाति ने जन्म से ही मानव समाज की रक्षा, समृद्धि एवं प्रतिष्ठा को अपना मूल कर्तव्य मानकर आदर्श भूमिका निभाई है। प्रगट होते ही पवार वीरों ने दानव-दैत्यों का संहार कर ऋषि-महर्षि तथा सर्वसाधारण जनमानस को सुरक्षा प्रदान की। मां दुर्गा (महामाया) को आराध्य तथा धार को अपनी कर्मभूमि बनाया। कुछ काल गुमनामी में बिताने के बाद ईसा पूर्व 761 में बौद्धधर्मियों से परेशान होकर महाबाहु नामक ऋषि ने आबू समीप अचलगढ़ व चंद्रावती राज्य की स्थापना की। ईसा पूर्व 400 वर्ष में महाप्रतापी नृपति, आदित्य पवार, विक्रमादित्य आदि ने इस जाति का गौरव चारो ओर फैलाया। इसी परमार वंश ने आगे ईसा 791 से 1310 तक राजा भोज, उपेन्द्र, बैरीसिंह, मंजुदेव, भोजदेव, जयसिंह, उदयादित्य, जगदेव, नर बर्मन ई, महाप्रतापी शूर एवं विद्वान नृपति गण को जन्म दिया। इन्होंने घार, उज्जैन, बागड़, जालौर, आयू तथा भिन्माल में राज्य कर मालवा को समृद्धशाली बनाया। परमार राजवंश का आधिपत मालवा से प्रारंभ होकर देश के कई हिस्सों में फैला था, जिसका प्रामाणिक इतिहास डॉ. गांगुली, डॉ. व्यंकटाचलम और कई विद्वान लेखकों, इतिहासकारों के शोध प्रबंध ग्रंथों में मिलता है। राजा भोज ने राज्य की राजधानी उज्जैन से हटाकर धार में स्थापित की थी। उस काल में धार का नाम धारा नगरी या राजाभोज का किला, भोजशाला इस बात के प्रमाण हैं।

समय बदलता गया राजपूताने और मालवा पर मुगल शासकों का आक्रमण होने लगा। कुछ राजा भोज के शासनकाल में तो कुछ इसके बाद परमारों का बिखराव होता चला गया। पवारों के पूर्वज मुगल सेना के आक्रमण और अत्याचार से परेशान हो गए थे मुगलों ने धार को तहस नहस कर दिया था। वे महिलाओं पर भारी अत्याचार करते थे। फिर भी जांबाज वीर योद्धा होने के कारण पवार काफिले के साथ मुगल सेना का मुकाबला करते हुए धार से

होशंगाबाद नर्मदा किनारे पहुंचे, यहां से अलग-अलग टुड़िया में नर्मदा में जनेऊ विसर्जित करके अलग अलग स्थानों क्रमशः बैतूल, छिंदवाड़ा। महाराष्ट्र में छत्रपति शिवाजी के सहयोगी योद्धा परमार वंश के लोग आज मराठा पंवार कहलाते है। उस काल में उन विषम परिस्थितियों में जो जिस भूखंड पर बस गया। उसने उस क्षेत्र की बोली, पहनावा, खानपान अपना लिया। यहां तक कि उनके सरनेम भी बदल गए किंतु इनके रीति-रिवाजों एवं बोली में मालवा की संस्कृति के अंश आज भी विद्यमान है।

धार मालवा से आये ७२ गोत्र पवार / पंवार के गोत्र (कुल) 
पवारो के यह गोत्र राजपूत सैनिक सरदारों के नाम /पदनाम / पदवी / संकेतित नाम  है 
यह वह ७२ गोत्र है जो धार से आये है कालन्तर में  गोत्र (कुल ) कुछ बदल गए है 
७२ कुली पवार /पंवार मुख्य रूप से मुलताई , पांढुर्ना हुए कारंजा घाडगे में मुख्य रूप निवासरत है

पंवारो की शाखाएं

पंवारो की शाखाएं

                    वर्तमान में परमार वंश की एक शाखा उज्जैन के गांव नंदवासला,खाताखेडी तथा नरसिंहगढ एवं इन्दौर           के गांव बेंगन्दा में निवास करते हैं।धारविया परमार तलावली में भी निवास करते हैंकालिका माता के भक्त होने            के कारण ये परमार कलौता के नाम से भी जाने जाते हैं।धारविया भोजवंश परमार की एक शाखा धार जिल्हे के            सरदारपुर तहसील में रहती है। इनके ईष्टदेव श्री हनुमान जी तथा कुलदेवी माँ कालिका(धार)है|ये अपने यहाँ 
        पैदा होने वाले हर लड़के का मुंडन राजस्थान के पाली जिला के बूसी में स्थित श्री हनुमान जी के मंदिर में करते
         हैं। इनकी तीन शाखा और है;एक बूसी गाँव में,एक मालपुरिया राजस्थान में तथा एक निमच में निवासरत् है।

11वी से 17 वी शताब्दी तक पंवारो का प्रदेशान्तर सतपुड़ा और विदर्भ में हुआ । सतपुड़ा क्षेत्र में उन्हें भोयर पंवार कहा जाता है धारा नगर से 15 वी से 17 वी सदी स्थलांतरित हुए पंवारो की करीब 72 (कुल) शाखाए बैतूल छिंदवाडा वर्धा व् अन्य जिलों में निवास करती हैं।संस्कृत शब्द प्रमार से अपभ्रंषित होकर परमार/पंवार/पोवार/पँवार शब्द प्रचलित हुए ।

पँवारी लोकगीत / भोयरी - संस्कार गीत- पांढरी की ओ माता-माय

पांढरी की ओ माता-माय / पँवारी

पांढरी की ओ माता-माय
मऽ मानू तू हय भोरी।
आओ-आओ माता-माय
करू तोरी बिनती आज की रात
करजो मराअ् घरअ् वास
दिन खऽ लेजो कू-कू को रेला
रात खऽ लेजो सहिर वास।।
पाण्ढरी को रे हनुमान बाबा
मऽ मानू तू हयअ् भोरो
आओ-आओ रे हनुमान बाबा।
करू तोरी बिनती आज की रात
करजो मराअ् घरअ् वास
दिन खऽ लेजो कूक को रेला
रात खऽ लेजो सहिर वास।।

पँवारी लोकगीत   ♦   रचनाकार: अज्ञात

Source -http://kavitakosh.org/kk/पांढरी_की_ओ_माता-माय_/_पँवारी

पँवारी लोकगीत / भोयरी - संस्कार गीत- भैय्या घरअ् भयो नंदलाल / पँवारी

भैय्या घरअ् भयो नंदलाल / पँवारी


भैय्या घरअ् भयो नंदलाल
काहे की डालू घुंगरी
हरो लिलो गहूँ कटाय
ओकी म डाल्हूँ घुंगरी
गांव भर खअ् बुलाहूँ, घुंगरी खिलाहूँ
बीर को बारसा मनाहूँ, बाटहूं मऽ ते घुंगरी
भैय्या घरअ् भयो बारो लाल, बाट्हूँ मऽ ते घुंगरी

भाई का कथन- चल चल बहिना गाय का कोठा
अच्छी-अच्छी गाय निवाड़ ले...बहिना बाई
बहन का कथन- पाँच बरस को बरद मनायो
का करू भैय्या तोरी गाय को
भौजी का कंगना दिला बीरन मखअ्
पाच बरस को बरद मनायो
भाई- भौजी का कंगना ओका, मायका सी आया
कंगना दिया नी जाय ओ बीना बाई
आऊपर कई मांग ले मऽ सीअ्
पाच बरस को बरद मनायो।


पँवारी लोकगीत   ♦   रचनाकार: अज्ञात


Source -http://kavitakosh.org/kk/