Thursday 10 October 2024

बैनगंगा तथा वर्धा तटीय पवार समुहों में वैवाहिक सम्बन्धो के पुख्ता प्रमाण

 मॉं ताप्ती शोध संस्थान मुलताई जिला - बैतूल (म. प्र.)

 दि. २५-११- २०२३ 

शुभ संदेश 

परमार कालीन संस्कृत ग्रंथ (भविष्य पुराण, भागवत पुराण, स्कंध पुराण, परसुराम संहिता, नवसहसांक, तिलक मंजिरी आदि) तथा शिलालेख (उदयपुर, कालवन, मांधाता आदि : अमरचंद मित्तल, १९७९ - "परमार अभिलेख") जो भी प्राप्त हुएं हैं उन में प्रमर, प्रमार, परमार, पवाम, पवार आदि अग्निकुंड से प्रकट शूरवीर एवं उसके वंश के नाम मिलते हैं। कहीं भी पंवार या पोवार नामक शूरवीर अग्निकुंड से उत्पन्न हुआ, ऐसा लिखा हुआ नही मिलता। जब मालवदेश में संस्कृत की जगह प्राकृत से उत्पन्न अनेक लोक भाषाओं ने ली, राजस्थानी, मारवाड़ी तथा स्थानीय बोलियों का प्रचार बढा तो पवार का पॅंवार/पंवार नाक दबाकर बोलने (उच्चारण) के कारण बदल हुआ। मुग़ल काल में यह संज्ञा फारसी, उर्दू के प्रभाव से दृढ़ हुई। पोवार तो केवल बैनगंगा क्षेत्र में आने के बाद स्थानीय गोंडी, झाड़ी, मराठी आदि बोलियों के दुष्परिणाम का अपभ्रंश है।

 सतपुडा अंचल में स्थानांतरण पूर्व धार के कुछ पंवार सरदार पश्चिम महाराष्ट्र आये, छत्रपति शिवाजी की फ़ौज में भर्ती हुए, पेशवाई में फिर धार (आनंदराव पवार) देवास (उदोजी पवार) के राजा बने। वे अपने वंश को पंवार की अपेक्षा पवार कहते गर्व करते हैं। आज पंवार तो केवल राजपूत जाति का एक वंश के रुप में पहचाना जाता हैं। आज राजपूत तथा पवार दोनो भिन्न जातियॉं हैं। कुछ ब्रिटीश कालीन अंग्रेज अफसरों ने बिना सखोल छानबीन किए, जाने अनजाने में हमें पंवार संबोधित किया। तत्कालीन हमारे कुछ शिक्षित पुरखों ने देखासिखी के चक्कर में पंवार लिखने लगे सो हम बांधिल होकर क्यूं स्वीकार करें? पंवार संज्ञा स्विकार कर भी लें तो पवार संज्ञा से तिरस्कार क्यों करें? कुछ हमारी जाति के विद्वान आजकल विक्रमादित्य और भोज को भी पोवार लिख कर गलत प्रचार कर रहे है। वे मुलतया प्रमर, परमार है।

 परमार काल में पोवार नाम का शब्द या जाति ही नही पैदा हुई थी सो ये महापुरुष "पोवार" कैसे? औरंगजेब के अंतिम काल में जब हम मालवा से बैनगंगा क्षेत्र आये और तत्कालीन गोंडवाना प्रदेश में बसे तो पवार के पोवार हुए (जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन, १९१६, रसेल एवं हीरालाल (१९१६)। इन लोगों ने अपने साथ अपनी मातृभाषा पवारी लाई जो पवारी, पोवारी, भोयरी बोली नाम से जानी जाती हैं (विमलेश कांति वर्मा, १९९५, गणेश देवी, २०१३,अनिक गंगोपाध्याय,२०२०). दशरथ शर्मा ने पंवार वंश दर्पण किताब में परमार/पंवारो की ३५ शाखायें दी हैं, उनमें एक पवार है, वे ही बादमें पोवार कहलाये। इन पवारों की मूल ३६ शाखायें (कुल/उपगोत्र) हैं किंतु बैनगंगा क्षेत्र में केवल ३० ही आये। डाला, रावत, फरीद, रंजहास, रहमत, रंदिवा मालवा में ही ठहर गये (शेरिंग, १८७९)। वर्धा तटीय भोयर पवार भी इसी पवार शाखा के ७२ कुलीन पवार हैं तथा हममें और उनमें वैवाहिक रिश्ते तो इधर स्थानांतरण होने पूर्व से ही मालवा में थे 

इसके प्रमाण हैं। बैनगंगा तथा वर्धा तटीय पवार समुहों में वैवाहिक सम्बन्धो के पुख्ता प्रमाण - बैनगंगा तथा वर्धा तटीय पवारों में वैवाहिक सम्बन्धो के पुख्ता प्रमाण भाटों के पोढियों से उजागर होते हैं। ऐसा ही एक प्रमाण श्री रामकृष्ण डोंगरे, उमरानाला, जिला छिंदवाड़ा म.प्र. ने उनके पुस्तैनी भाट श्री राजकुमार सारोठजी की पोथियों में पाया हैं।

 उसे नीचे प्रकट किया जा रहा है - इतिहासकारों के अनुसार बैनगंगा तथा वर्धा तटीय पवार समुह औरंगजेब के अंतिम काल (अनुमानित १६८०-१७०० ईस्वी) में मध्यभारत के गोंडवाना क्षेत्र (वर्तमान विदर्भ - महाकौशल) में आये तथा देवगढ़ के गोंड राजा बख्त बुलंद शाह, बाद में उसका पुत्र चांद सुल्तान, नागपुर तथा रघुजी राजा भोसले, नागपुर की सेना में अपने शौर्य से उन्होंने खुप शोहरत पाई। स्थानांतरण पूर्व धार में प्रताप सिंह डोंगरदीया (डोंगरे) रहते थे।

 वे धार के सुबेदार राजा गिरधर बहादूर की सेना में ऊंचे पद पर नियुक्त थे। प्रतापसिंह के कारुसिंह तथा महाप्रयाग सिंह दो बेटे थे। दोनो ने मुस्लीम सेना के खिलाप अनेक लड़ाइयां लड़ी और अलौकिक वीरता के लिए मशहूर हुए। महाप्रयाग सिंह को कारुसिंह का विवाह रुपलाबाई से हुआ। 

वह आंबुलिया (अम्बुले) कुल की थी। कालुसिंह को नांददेव पुत्र हुआ। नांददेव को सुमन सिंह पुत्र हुआ। सुमनसिंह धार के राजा दया बहादुर के वजीर थे।

 वे मुसलमानों द्वारा किए गये आक्रमण में लड़ते हुए मारे गये। सुमन सिंह की पत्नी सुनीता बाई जैतवार कुल की कन्या थी। उनके तीन पुत्र हुए - १. नारुदेव, २. वीरदेव तथा ३. गोरदेव। वे देवगढ़ के तत्कालिन गोंड राजा के फ़ौज में भर्ती हो गये तथा कुछ काल पश्चात् उनके वंशज बैतूल जिले के गांवों की वतनदारी प्राप्त कर स्थायीक रुप से बस गये।

 हमारे समाज के नेताओं ने अखिल भारतीय पंवार क्षत्रिय महासभा अधिवेशन १९६४-६५ में बैनगंगा तथा वर्धा क्षेत्र के दोनो समुहों का मिलन किया, नि:संदेह वह इतिहासिक, सांस्कृतिक, भाषाई निकषोंपर गहरे चिंतन मंथन से किया हैं। 

इस सामाजिक मिलन के पक्षधर हमारे तत्कालीन सांसद, विधायक, समाजसेवी तथा बुद्धिजीवी थे। -राजेश पवार, संचालक माँ ताप्ती शोध संस्थान मुलताई, जिला- बैतूल

Tuesday 12 March 2024

पवारों में दुःख में दायित्व बोध की दरकार

 पवारों में दुःख में दायित्व बोध की दरकार


पवारों में सामाजिक सरोकार इतना प्रबल होता है कि सुख-दुःख के अवसरों पर एक-दूसरे रिश्तेदारों को सूचित करना मानो उनका अपना दायित्व हो।| दुःख के अवसर पर खबर आग की तरह फैलते देर नहीं लगती थी। पक्षियों में जैसे एक कौआ कॉव-कॉव करके सबको खबर करके एकत्रित कर लेता है, ठीक ऐसे ही पवारों में सबको सूचित करके एकत्रित कर लेने की प्रथा है। अधिकांश पवार जन कृषि कार्य से जुड़े होने से गाँवों में रहते हैं| आज मोबाइल का जमाना है,खबर पहुँचते देर नहीं लगती | परन्तु जब मोबाइल नहीं थे तब भी खबर पहुँच जाती थी और सब रिश्तेदार एकत्रित हो जाते थे। हाट-बाजार में मिले रिश्तेदारों को या एक गॉव से दूसरे गॉव जा रहे गाँव के व्यक्ति के माध्यम से उस गाँव में रह रहे रिश्तेदारों को सूचना प्रेषित कर दी जाती थी।

गॉव के लोगों में भी परस्पर इतना प्रेम और भाईचारा होता था कि सब एक दूसरे के रिश्तेदारों को जानते थे और जहा भी मिले राम-राम कहकर एक दूसरे की खबर लिया करते थे | और न केवल खबर लिया करते थे अपितु संबंधित व्यक्ति के घर जाकर उनके रिश्तेदार द्वारा प्रेषित संदेश उन तक पहुँचाना अपना धर्म समझते थे | आश्चर्य की बात तो यह है कि सुख के अवसर पर भी कोई निमंत्रण मुद्रित नहीं किए जाते थे। जिस व्यक्ति के घर कोई शादी विवाह होता था उस घर का सदस्य अपने रिश्तेदारों के घर जाकर उनके दरवाजे पर हल्दी में रंगे चावल रखकर कार्यकम की मौखिक सूचना भर दे देता था। कई बार सदस्य घर पर मिल जाते थे, कई बार घर पर बच्चे या कोई वृद्ध व्यक्ति होता था उसे ही सूचना दे दी जाती थी। शाम को जब परिजन अपने खेत से घर लौटते तब दरवाजे पर रखे चावल के दाने देखकर वे खुशी से उछल पड़ते थे और घर में उपस्थित सदस्यों से कार्यकम की विस्तृत जानकारी ले लिया करते थे | इस खबर को अपने अन्य रिश्तेदारों तक पहुँचाते देर नहीं लगती थी। हर आने जाने वाले व्यक्ति के माध्यम से यह समाचार अपने अन्य रिश्तेदारों तक पहुँचा दिया जाता था।

दुख के अवसर पर रिश्तेदारों को सूचना करने का दायित्व गॉव के लोगों व अन्य परिजनों का हुआ करता था। दुःख के अवसर पर शोक संदेश मुद्रित कर वितरित करना प्रचलन में नहीं था। इसे लोग अच्छा नहीं मानते थे। उनका मानना था कि सुख में आमंत्रित किया जाता है, बुलाया जाता है,पर दुख में व्यक्ति को स्वयं आना होता है। दुख के अवसर पर ही व्यक्ति की परख की जाती थी कि वह कितना व्यावहारिक व संवेदनशील है | दुख के अवसर पर शामिल न होने पर संबंधित व्यक्ति के प्रति समाज का रूख कड़ा होता था। व्यक्ति अपराध बोध से दब जाता था और किसी से नजर मिलाकर बात करने का साहस नहीं जुटा पाता था। इस स्थिति से उबरने में उसे सालों लग जाते थे।

आज सुख दुःख के हर अवसरों पर मुद्रित सूचना देने का प्रचलन बढ़ चला है पर इससे सामाजिक सरोकार नहीं बढ़ा है। अब सामाजिक सरोकार सिमटता जा रहा है। पीड़ित व्यक्ति को ही सारी व्यवस्थाएं करनी पड़ती है| व्यक्ति केवल औपचारिकतावश व लोक लाज के कारण उपस्थित भर होते हैं| चेहता दिखाकर पलल्‍ला झाड़ने में लोग माहिर हो गए हैं। आचरण में यह गिरावट किसी विकट संकट का सूचक है।

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पवारों में बहन-बेटी-बहू के चरण स्पर्श

 बहन-बेटी-बहू के चरण स्पर्श पवारों में बहन, बेटी-बहू के चरण स्पर्श करने की प्रथा है। बहन, बेटी-बहू के चरण स्पर्श करने के पीछे यही भावना होती है कि उनके प्रति व्यक्ति के मन में कुभाव उत्पन्न न हो। घर की बहन, बेटी व बहू सदैव पवित्र बनी रहे ताकि उनकी कोख से जन्म लेने वाली पीढ़ियाँ सदैव पवित्र व पावन उत्पन्न हो सके | 

हर शुभ अवसर पर बहन, बेटी व बहू के चरण स्पर्श करके व्यक्ति उनके प्रति अपने मन में सम्मान की भावना बनाए रखने के प्रति संकल्पबद्ध होता है। बहन के चरण स्पर्श कर भाई, बेटी-बहू के चरण स्पर्श कर बाप और ससुर बेटी-बहू के प्रति अपने मन में सम्मान भावना संजोता है और उनकी रक्षा के लिए प्रतिज्ञाबद्ध होता है।

 भाई बहन के चरण स्पर्श कर उसकी रक्षा के प्रति प्रतिज्ञाबद्ध होता है। बहन भी अपने भाई के चिरायु होने की कामना करती है। बेटी के विवाह अवसर पर पिता अपनी बेटी के चरण स्पर्श कर उससे आशीर्वाद की कामना करता है कि उसके जाने के बाद भी पिता का घर भरापूरा रहे और वह जिस घर जा रही है वह भी धन-धान्य से सम्पन्न हो जाए | 

अपने बेटे के लिए बहू लाते समय भी ससुर अपनी होने वाली बहू के चरण स्पर्श कर उससे इसी तरह के आशीर्वाद की कामना करता है कि उसके आगमन से वर और घर दोनों सुखी सम्पन्न हो जाए | बहू ही कुल के उत्तराधिकारी की जन्मदात्री होती है जिसपर वंश परम्परा निर्भर होती है और आगे भी चलती है, इसलिए वह भी पूज्य होती है। 

इस क्षेत्र का भुजलिया पर्व बेटी-बहन के सम्मान का प्रतीक पर्व और सावन गीत बहन व बहू के सम्मान का प्रतीक गीत है। इस सावन गीत के माध्यम से बहन और बहू अपने मायके से मिलती और जीने का संबल प्राप्त करती हैं। इस क्षेत्र में बेटी की विदाई उत्सव है, पर्व है। 

बेटी का घर आना आनंद है, त्योहार है | बेटी जब ससुराल से घर आती है तो उसका बड़ा आदर-सत्कार किया जाता है। इसका एक पृथक से पूरा पर्व ही है भादो माह में महालक्ष्मी ज्येष्ठा और कनिष्ठा दोनों बहनें पुत्री के रूप में मायके आती हैं और ढाई दिनों तक मायके में रहती हैं। 

विदाई के दिन सारा घर उदास हो उठता है। बेटी के प्रति इतना सम्मान अन्यत्र दुर्लभ है। इस क्षेत्र में बेटी के प्रति इतना प्रेम होता है कि उसे शब्दों में अभिव्यक्त कर पाना संभव नहीं है| यही कारण है इस क्षेत्र में कन्या भ्रूण हत्या का अभी तक एक भी प्रकरण सामने नहीं आया है। साथ ही इस क्षेत्र में बेटी को बेटे के बराबर दर्जा व सम्मान दिया जाता है।


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पवारों में पैर पूजा

 पवारों में पैर पूजा


पवारों में पैर पूजे जाते हैं सिर नहीं | पैर आचरण, हृदय, श्रद्धा और आस्था के प्रतीक हैं। सिर ज्ञान का प्रतीक है। सिर का उठना अंहकार का प्रतीक है। सिर उठे नहीं इसलिए पवारों में पैर पूजने का प्रचलन चल पड़ा | घर के बड़े-बूढ़ों के पैर छूने की परम्परा उनके प्रति सम्मान भावना का प्रतीक है। उनके आगे हमारा अंहकार सिर न उठा पाए इसलिए उनके आगे सिर झुकाया जाता है। संबंधित की मृत्यु होने के उपरांत भी पवारों में पैरों को प्रतीक के रूप में पूजे जाने की प्रथा है| किसी प्रियजन की मृत्यु के बाद उसकी प्रतिमा स्थापित करने के स्थान पर प्रतीकात्मक रूप से उसके पैर स्थापित किए जाने की प्रथा है जिसे थापना कहा जाता है। सामान्यतः यह थापना मिट्टी व पत्थर का बना चबूतरा होता है। अब मिट्टी व पत्थर के चबूतरे के स्थान पर ईंट सीमेंट का पक्का चबूतरा बनाने का प्रचलन भी चल पड़ा है। सामान्यतः यह थापना मृतक के सबसे प्रिय खेत, पेड़ व अन्य किसी स्थान आदि पर स्थापित किया जाता है जिसपर प्रतीकात्मक रूप से दो पैर बने होते हैं।


पितृ पक्ष में पूरे पक्ष भर पितरों के प्रतीकात्मक रूप से पैर ही उकेरे व पूजे जाते हैं। मृत्यु के उपरांत भी पितरों के प्रति यह सम्मान भावना बच्चों को संस्कारित करती है और वे भी अपने माता-पिता के प्रति सम्मान से भर उठते हैं।


हर तीज-त्योहार और खुशी के अवसर पर बड़े-बूढ़ों के पैर छूकर आशीर्वाद लेने से बच्चे भी अपने बड़े-बूढ़ों का अनुसरण करते हैं और आगे चलकर यही संस्कार का रूप ग्रहण करते हैं। घर में मेहमान आने पर एवं घर से मेहमान जाने पर उनके पैर छूकर आशीर्वाद लेने की परम्परा आज भी पवारों में जीवित है।


भरत द्वारा भगवान राम की खड़ाऊ माँगा जाना साधारण नहीं अपितु असाधारण बात है। खड़ाऊ निकृष्टतम चीज होती है। यदि व्यक्ति ने उसे ही पूज लिया तो फिर अंहकार को तो गलना ही है। राजा भरत द्वारा स्थापित मर्यादा का आज भी उसी आत्मीयता से अनुपालन करना एक प्रकार से भगवान राम के प्रति पवारों का सच्चा सम्मान प्रदर्शित करना है।


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Thursday 15 February 2024

Saturday 16 December 2023

72 गोत्र पवारो के गोत्र, कुलदेवी-देवता एवं वंश

 ७२ कुल पवारो के गोत्र, कुलदेवी-देवता एवं वंश 

 

गोत्र- परिहार,  कुल देवता- विष्णुकुलदेवी- चामुंडा,  वंश-अग्नि

 

गोत्र- चिकाने, देवासे, धारपुरे, राठउत, हजारे, पठारे, गाड़के, फरकाड़े, गिरहारे, लावड़े, डालू (डहारे), सवाई, ढोले, ऊंकार, टोपले, लावरी, माटेकुल देवता- शंकरकुलदेवी-दुर्गा,  वंश-अग्नि

 

गोत्र- बारंगा, किरंजकार, दुखी, खपरिया, डोंगरदिए, डिगरसे, कुल देवताशंकरजी, कुलदेवी- चंडी, वंश-चन्द्र से अग्नि

 

गोत्र- अरेलकिया, गकड़िया, पाठा, चौधरी, मानमोड़िया, देशमुख, हिंगवा, गोहिते, गोंदिया, धोटा, कुल देवता-शंकरजी, कुलदेवी-चंडिका, वंश-सूर्य

 

गोत्र-ढोडी, कामड़ी, मुन्नी, गोड़लिया, कालभूत, उकड़लिया, कुल देवताशंकरजी, कुलदेवी-कच्छपवाहिनी, वंश-सूर्य

 

गोत्र-गाकरिया (घाघरिया), रबड़िया, पिंजारा, किकर, कुल देवता-शंकरजी, कुलदेवी-विंध्यवासिनी, वंश-सूर्य

 

गोत्र-गोरिया, कुल देवता-शंकरजी, कुलदेवी-विंध्यवासिनी, वंश-सूर्य

 

गोत्र-गाडरी, कसाई, कुल देवता-शंकरजी, कुलदेवी-महाकाली, वंश-चन्द्र

 

गोत्र-सरोदिया, बोबड़ा, कुल देवता-शंकरजी, कुलदेवी-महाकाली, वंश-चन्द्र

 

गोत्र-बरगाड़िया, बोगाना, बागवान, बुहाड़िया, बरखेड़िया, कुल देवताशंकरजी, कुलदेवी-महालक्ष्मी, वंश-चन्द्र

 

गोत्र- बोबाट, खौसी, कुल देवता-शंकरजी, कुलदेवी-काली, वंश, चन्द्र

 

गोत्र-नाड़ीतोड़, खरगोसिया, कुल देवता-शंकरजी, कुलदेवी-काली, वंश चंद्र

 

गोत्र- डुढारिया, कुल देवता-शंकरजी, कुलदेवी-काली, वंश-चंद्र

 

गोत्र-बारखुहारा, भादिया, कड़वा, र्मधम, कुल देवता-शंकरजी, कुलदेवीकाली, वंश-चंद्र

 

गोत्र- करदातिया, चोपड़ा, रमधम, कुल देवता-शंकरजी, कुलदेवी-काली, वंश-चन्द्र

 

गोत्र- करदातिया, चोपड़ा, लाड़किया, लोखड़िया, सेरकिया, बड़नगरिया, ठावरी, ठुस्सी, ढोबारिया, कुल देवता-शंकरजी, कुलदेवी-दधिमाता, वंश-ऋषि।

 by

Rajesh barange Pawar