Friday, 22 August 2025

पवारी (भोयरी) बोली


भाषा किसी भी समुदाय की पहचान, संस्कृति और इतिहास का दर्पण होती है। प्रत्येक भाषा और बोली अपने भीतर उस समाज की परंपराओं, रीति-रिवाजों, मान्यताओं और ऐतिहासिक स्मृतियों को संजोए रहती है। भाषाओं का संरक्षण केवल संचार के लिए नहीं, बल्कि सांस्कृतिक विविधता और मानव सभ्यता की निरंतरता के लिए भी आवश्यक है। भारतीय उपमहाद्वीप में भाषाओं और बोलियों की अत्यधिक विविधता पाई जाती है। भाषाविदों के अनुसार भारत में प्रचलित प्रमुख भाषाओं के साथ-साथ सहस्रों बोलियाँ और उपबोलियाँ जीवित हैं, जो विशेष समुदायों और जातीय समूहों तक सीमित रहती हैं। इन्हीं में से एक है पवारी (भोयरी) बोली, जिसे विशेष रूप से क्षत्रिय पवार (भोयर पवार) समुदाय द्वारा बोला जाता है।

पवारी बोली का भाषाई वर्गीकरण इंडो-आर्यन परिवार में होता है, जो राजस्थानी → मालवी → भोयरी/पवारी की शाखा के अंतर्गत आती है। Glottolog (कोड: bhoy1241) के अनुसार इसे राजस्थानी मालवी की उपबोली माना गया है। विशेष तथ्य यह है कि यह बोली केवल पवार समुदाय द्वारा बोली जाती है, अन्य किसी जाति या समूह की मातृभाषा नहीं है। इससे यह स्पष्ट होता है कि पवारी केवल एक बोली नहीं बल्कि समुदाय विशेष की सांस्कृतिक धरोहर है।

ऐतिहासिक दृष्टि से, पवार समुदाय मूलतः राजस्थान और मालवा क्षेत्र का निवासी था। किंतु 15वीं से 17वीं शताब्दी के बीच यह समुदाय प्रव्रजन कर सतपुड़ा और विदर्भ क्षेत्र (बैतूल, छिंदवाड़ा, पांढुर्ना और वर्धा) में आकर बस गया। इस प्रव्रजन के बावजूद पवारों ने अपनी बोली और परंपराओं को जीवित रखा। यद्यपि समय के साथ पवारी में बुंदेली, निमाड़ी और मराठी का कुछ प्रभाव देखा जा सकता है, तथापि बैतूल, छिंदवाड़ा और पांढुर्ना की पवारी को अब भी “शुद्ध” माना जाता है, जबकि वर्धा क्षेत्र की पवारी पर मराठी प्रभाव अधिक दृष्टिगोचर होता है।

भाषाई दृष्टि से पवारी का अध्ययन अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि—

  1. यह बोली एक विशिष्ट जातिगत समुदाय तक सीमित है।

  2. यह राजस्थान–मालवा प्रव्रजन और सांस्कृतिक निरंतरता का प्रत्यक्ष प्रमाण देती है।

  3. यह मध्य भारत की भाषाई बहुलता को समझने में विशेष योगदान देती है।

सांस्कृतिक दृष्टि से पवारी बोली के अंतर्गत समृद्ध लोकसाहित्य और मौखिक परंपराएँ विद्यमान हैं। पवारी लोकगीत – जैसे जन्म, विवाह, त्योहार और मृत्यु संस्कार गीत – केवल सांस्कृतिक अभिव्यक्ति नहीं, बल्कि इतिहास और सामाजिक संरचना की झलक भी प्रस्तुत करते हैं। विशेष रूप से भुजलिया गीत, सावन-हिण्डोरना, कोयला बाई जैसे गीत पवारी समाज की सांस्कृतिक आत्मा का हिस्सा हैं।

आधुनिक परिप्रेक्ष्य में, पवारी बोली गंभीर संकट का सामना कर रही है। शिक्षा और प्रशासन की भाषाएँ हिंदी और मराठी होने के कारण नई पीढ़ी अपनी मातृभाषा के प्रति कम आकर्षित हो रही है। शहरीकरण और पलायन ने भी इसके अस्तित्व पर दबाव डाला है। यद्यपि राष्ट्रीय पवारी साहित्य कला संस्कृति मंडल (2018), झुंझुर्का पत्रिका (2020) और पवारी शोध पत्रिका (2025) जैसी पहलें संरक्षण की दिशा में महत्वपूर्ण हैं, परंतु बोली की दीर्घकालीन सुरक्षा के लिए अधिक सशक्त शैक्षिक और शैक्षणिक प्रयास आवश्यक हैं।

Rajesh Barange Pawar

पवारी शोध पत्रिका 

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