Sunday, 14 December 2025

bhoyari boli

यहाँ भोयरी (पवारी) बोली पर एक विस्तृत और शोध-परक (Research-oriented) आलेख प्रस्तुत है। इसमें भाषा-विज्ञान, इतिहास, समाजशास्त्र और शब्द-व्युत्पत्ति (Etymology) का समावेश किया गया है ताकि यह एक गंभीर अध्ययन जैसा प्रतीत हो।
भोयरी (पवारी) बोली: एक भाषाई एवं सांस्कृतिक अनुशीलन (An Anthropological and Linguistic Study)
प्रस्तावना (Introduction)
भाषा केवल संवाद का माध्यम नहीं होती, बल्कि वह किसी समुदाय के ऐतिहासिक प्रवास, भौगोलिक परिस्थितियों और सामाजिक संरचना का पुरातात्विक प्रमाण (Archaeological evidence) होती है। मध्य भारत के सतपुड़ा अंचल में निवासरत भोयर पवार समुदाय की मातृभाषा ‘भोयरी’ (जिसे पवारी भी कहा जाता है) इसका एक जीवंत उदाहरण है। भाषाई दृष्टिकोण से, भोयरी को एक 'सेतु बोली' (Bridge Dialect) माना जा सकता है, जो पश्चिमी भारत की राजस्थानी बोलियों और मध्य भारत की मराठी एवं हिंदी के बीच एक सांस्कृतिक पुल का निर्माण करती है। प्रस्तुत आलेख का उद्देश्य 'चनुक-झुनुक' (पवारी शब्दकोश) और ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर इस बोली की संरचना, शब्दावली और इसके सामाजिक महत्व का विश्लेषण करना है।
1. ऐतिहासिक पृष्ठभूमि एवं प्रवास का सिद्धांत (Historical Background & Migration Theory)
भोयरी बोली के उद्भव को समझने के लिए पंवार वंश के प्रवासन (Migration) को समझना अनिवार्य है।
शोध से यह स्पष्ट होता है कि इस समुदाय का मूल स्थान धार और मालवा (राजा भोज का क्षेत्र) रहा है। 11वीं से 14वीं शताब्दी के मध्य हुए राजनीतिक उथल-पुथल और पलायन के कारण, यह समुदाय मालवा से विस्थापित होकर सतपुड़ा की घाटियों (बैतूल, छिंदवाड़ा, सिवनी, वर्धा) की ओर बढ़ा।
 * भाषाई रूपांतरण: जब यह समुदाय मालवा में था, तो उनकी भाषा पर 'मालवी' और 'निमाड़ी' का प्रभाव था। जैसे-जैसे वे दक्षिण की ओर बढ़े और विदर्भ (महाराष्ट्र) की सीमा पर बसे, उनकी बोली में 'मराठी' शब्दों का समावेश हुआ।
 * निष्कर्ष: अतः वर्तमान भोयरी बोली, संस्कृत-निष्ठ हिंदी, राजस्थानी (मारवाड़ी/मालवी) और मराठी का एक अनूठा 'त्रिवेणी संगम' है।
2. भौगोलिक विस्तार एवं भाषाई वर्गीकरण (Geographical Spread & Classification)
भोयरी बोली मुख्य रूप से मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के सीमावर्ती जिलों में बोली जाती है। भाषा-विज्ञान के अंतर्गत इसे इंडो-आर्यन परिवार की मध्य भारतीय बोलियों के समूह में रखा जा सकता है।
 * प्रमुख क्षेत्र: बैतूल, छिंदवाड़ा, सिवनी, बालाघाट (म.प्र.) तथा वर्धा, नागपुर, अमरावती (महाराष्ट्र)।
 * उच्चारण शैली (Phonology): इस बोली में 'ण' और 'ळ' का प्रयोग प्रचुरता से मिलता है (जैसे- न की जगह 'ण', ल की जगह 'ळ'), जो मराठी और राजस्थानी दोनों का लक्षण है। साथ ही, क्रियाओं के अंत में 'नूं' या 'ना' का प्रयोग (जैसे- जानूं, करनूं) गुजराती और राजस्थानी प्रभाव को दर्शाता है।
3. शब्द-संपदा एवं व्युत्पत्ति विश्लेषण (Lexical Analysis & Etymology)
वल्लभ डोंगरे द्वारा संकलित 'चनुक-झुनुक' शब्दकोश का विश्लेषण करने पर हमें भोयरी शब्दावली को तीन प्रमुख श्रेणियों में विभाजित करने का आधार मिलता है:
क. कृषि एवं पर्यावरण (Agrarian Vocabulary)
चूंकि भोयर पवार मूलतः एक कृषक समाज है, इसलिए उनकी शब्दावली में कृषि उपकरणों के नाम अत्यंत विशिष्ट हैं, जो अन्य बोलियों में दुर्लभ हैं:
 * बक्खर (Bakkhar): खेत जोतने का उपकरण (मालवी प्रभाव)।
 * दावन (Daavan): बैलों द्वारा फसल की मड़ाई।
 * रास (Raas): अनाज का ढेर।
 * पनोची (Panochi): मटकों को रखने का लकड़ी का स्टैंड। यह शब्द नितांत स्थानीय और मौलिक (Indigenous) प्रतीत होता है।
ख. पारिवारिक संरचना (Kinship Terms)
रिश्तों के नामकरण में एक विशिष्ट सामाजिक मनोविज्ञान (Social Psychology) झलकता है:
 * लोग-लोगनी (Log-Logni): पति-पत्नी के लिए प्रयुक्त। यहाँ 'लोग' का अर्थ 'स्वयं' से हटकर 'समूह' या 'समाज' हो जाता है, जो यह दर्शाता है कि विवाह के बाद व्यक्ति 'मैं' नहीं रहता, बल्कि 'हम' (लोग) हो जाता है।
 * मौ और आई: पिता के लिए 'मौ' (राजस्थानी 'बाऊ/सा' का अपभ्रंश) और माता के लिए 'आई' (मराठी प्रभाव) का प्रयोग इस समाज की मिश्रित संस्कृति का सबसे बड़ा प्रमाण है।
ग. अमूर्त अवधारणाएँ (Abstract Concepts)
 * सुखवाड़ा (Sukhwada): यह शब्द केवल 'समाचार' नहीं है। इसका शाब्दिक अर्थ है- 'सुख का वाड़ा' (Enclosure of Happiness)। यानी ऐसा संदेश जिसमें केवल मंगलकामनाएं हों।
 * लुहयड़ी (Luhyadi): यह पंजाबी शब्द 'लोहड़ी' (अग्नि पूजन) का सजातीय (Cognate) प्रतीत होता है। भोयरी में इसका अर्थ अलाव या जलती लकड़ी है, जो भाषाई आदान-प्रदान के व्यापक दायरे को दर्शाता है।
4. लोकोक्तियाँ और सामाजिक दर्शन (Idioms & Socio-Cultural Philosophy)
किसी भी बोली की समृद्धि उसकी लोकोक्तियों में छिपी होती है। भोयरी लोकोक्तियाँ समाज के व्यावहारिक ज्ञान को प्रदर्शित करती हैं:
> "नद्दी कोदी जानूं" (Nadi Kodi Janu)
> विश्लेषण: शाब्दिक अर्थ है 'नदी की ओर जाना', लेकिन इसका लाक्षणिक अर्थ 'शौच के लिए जाना' है। यह मुहावरा उस दौर का द्योतक है जब जीवन जल स्रोतों के निकट था और स्वच्छता की अवधारणा प्रकृति से जुड़ी थी।
> "तीन ताल, चौदा भुवान" (Teen Taal, Chauda Bhuvan)
> विश्लेषण: यह अत्यधिक परिश्रम और ब्रह्मांडीय संघर्ष को दर्शाता है।
5. सांस्कृतिक पर्व और उनका भाषाई महत्व
भोयरी बोली में त्योहारों के नामकरण के पीछे गहरा अर्थशास्त्र और धर्मशास्त्र छिपा है:
 * पोला और कर (Pola & Kar): 'पोला' बैलों का उत्सव है, जो कृषि-प्रधान अर्थव्यवस्था का सूचक है। इसके अगले दिन 'कर' मनाया जाता है। शोध की दृष्टि से, 'कर' (जुआ खेलना) केवल मनोरंजन नहीं है, बल्कि यह 'नियतिवाद' (Fatalism) और 'कर्म सिद्धांत' का व्यावहारिक प्रशिक्षण है—कि जीवन में हार और जीत दोनों को खेल भावना से स्वीकार करना चाहिए।
 * अखाड़ी और अखेजी: यह 'अक्षय तृतीया' का अपभ्रंश है, जिसे कृषि वर्ष की शुरुआत माना जाता है।
6. निष्कर्ष (Conclusion)
समग्र विश्लेषण के आधार पर यह कहा जा सकता है कि भोयरी (पवारी) केवल एक बोली नहीं, बल्कि एक ऐतिहासिक दस्तावेज है। इसमें मालवा के परमारों का शौर्य, निमाड़ का अल्हड़पन और महाराष्ट्र की सामाजिक व्यवस्था का समन्वय है। वैश्वीकरण के दौर में जब छोटी बोलियां विलुप्त हो रही हैं, 'चनुक-झुनुक' जैसे शब्दकोशों का निर्माण और इस बोली का संरक्षण केवल भोयर समाज के लिए नहीं, बल्कि भारतीय भाषा-विज्ञान के लिए अत्यंत आवश्यक है।
यह बोली प्रमाणित करती है कि संस्कृति स्थिर नहीं होती, बल्कि नदी की तरह प्रवाहमान होती है, जो अपने रास्ते में आने वाले हर क्षेत्र के रंगों (शब्दों) को अपने में घोल लेती है।
शोध संदर्भ:
 * चनुक-झुनुक (पवारी शब्दकोश) - वल्लभ डोंगरे, सतपुड़ा संस्कृति संस्थान, भोपाल।
 * मध्य भारत की जनजातीय एवं जातीय बोलियों का तुलनात्मक अध्ययन।

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