पवारों में पैर पूजा
पवारों में पैर पूजे जाते हैं सिर नहीं | पैर आचरण, हृदय, श्रद्धा और आस्था के प्रतीक हैं। सिर ज्ञान का प्रतीक है। सिर का उठना अंहकार का प्रतीक है। सिर उठे नहीं इसलिए पवारों में पैर पूजने का प्रचलन चल पड़ा | घर के बड़े-बूढ़ों के पैर छूने की परम्परा उनके प्रति सम्मान भावना का प्रतीक है। उनके आगे हमारा अंहकार सिर न उठा पाए इसलिए उनके आगे सिर झुकाया जाता है। संबंधित की मृत्यु होने के उपरांत भी पवारों में पैरों को प्रतीक के रूप में पूजे जाने की प्रथा है| किसी प्रियजन की मृत्यु के बाद उसकी प्रतिमा स्थापित करने के स्थान पर प्रतीकात्मक रूप से उसके पैर स्थापित किए जाने की प्रथा है जिसे थापना कहा जाता है। सामान्यतः यह थापना मिट्टी व पत्थर का बना चबूतरा होता है। अब मिट्टी व पत्थर के चबूतरे के स्थान पर ईंट सीमेंट का पक्का चबूतरा बनाने का प्रचलन भी चल पड़ा है। सामान्यतः यह थापना मृतक के सबसे प्रिय खेत, पेड़ व अन्य किसी स्थान आदि पर स्थापित किया जाता है जिसपर प्रतीकात्मक रूप से दो पैर बने होते हैं।
पितृ पक्ष में पूरे पक्ष भर पितरों के प्रतीकात्मक रूप से पैर ही उकेरे व पूजे जाते हैं। मृत्यु के उपरांत भी पितरों के प्रति यह सम्मान भावना बच्चों को संस्कारित करती है और वे भी अपने माता-पिता के प्रति सम्मान से भर उठते हैं।
हर तीज-त्योहार और खुशी के अवसर पर बड़े-बूढ़ों के पैर छूकर आशीर्वाद लेने से बच्चे भी अपने बड़े-बूढ़ों का अनुसरण करते हैं और आगे चलकर यही संस्कार का रूप ग्रहण करते हैं। घर में मेहमान आने पर एवं घर से मेहमान जाने पर उनके पैर छूकर आशीर्वाद लेने की परम्परा आज भी पवारों में जीवित है।
भरत द्वारा भगवान राम की खड़ाऊ माँगा जाना साधारण नहीं अपितु असाधारण बात है। खड़ाऊ निकृष्टतम चीज होती है। यदि व्यक्ति ने उसे ही पूज लिया तो फिर अंहकार को तो गलना ही है। राजा भरत द्वारा स्थापित मर्यादा का आज भी उसी आत्मीयता से अनुपालन करना एक प्रकार से भगवान राम के प्रति पवारों का सच्चा सम्मान प्रदर्शित करना है।
वल्लभ डोंगरे द्वारा बुक
"पवारी परम्पराए एवं प्रथाए"
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