Tuesday 12 March 2024

पवारों में दुःख में दायित्व बोध की दरकार

 पवारों में दुःख में दायित्व बोध की दरकार


पवारों में सामाजिक सरोकार इतना प्रबल होता है कि सुख-दुःख के अवसरों पर एक-दूसरे रिश्तेदारों को सूचित करना मानो उनका अपना दायित्व हो।| दुःख के अवसर पर खबर आग की तरह फैलते देर नहीं लगती थी। पक्षियों में जैसे एक कौआ कॉव-कॉव करके सबको खबर करके एकत्रित कर लेता है, ठीक ऐसे ही पवारों में सबको सूचित करके एकत्रित कर लेने की प्रथा है। अधिकांश पवार जन कृषि कार्य से जुड़े होने से गाँवों में रहते हैं| आज मोबाइल का जमाना है,खबर पहुँचते देर नहीं लगती | परन्तु जब मोबाइल नहीं थे तब भी खबर पहुँच जाती थी और सब रिश्तेदार एकत्रित हो जाते थे। हाट-बाजार में मिले रिश्तेदारों को या एक गॉव से दूसरे गॉव जा रहे गाँव के व्यक्ति के माध्यम से उस गाँव में रह रहे रिश्तेदारों को सूचना प्रेषित कर दी जाती थी।

गॉव के लोगों में भी परस्पर इतना प्रेम और भाईचारा होता था कि सब एक दूसरे के रिश्तेदारों को जानते थे और जहा भी मिले राम-राम कहकर एक दूसरे की खबर लिया करते थे | और न केवल खबर लिया करते थे अपितु संबंधित व्यक्ति के घर जाकर उनके रिश्तेदार द्वारा प्रेषित संदेश उन तक पहुँचाना अपना धर्म समझते थे | आश्चर्य की बात तो यह है कि सुख के अवसर पर भी कोई निमंत्रण मुद्रित नहीं किए जाते थे। जिस व्यक्ति के घर कोई शादी विवाह होता था उस घर का सदस्य अपने रिश्तेदारों के घर जाकर उनके दरवाजे पर हल्दी में रंगे चावल रखकर कार्यकम की मौखिक सूचना भर दे देता था। कई बार सदस्य घर पर मिल जाते थे, कई बार घर पर बच्चे या कोई वृद्ध व्यक्ति होता था उसे ही सूचना दे दी जाती थी। शाम को जब परिजन अपने खेत से घर लौटते तब दरवाजे पर रखे चावल के दाने देखकर वे खुशी से उछल पड़ते थे और घर में उपस्थित सदस्यों से कार्यकम की विस्तृत जानकारी ले लिया करते थे | इस खबर को अपने अन्य रिश्तेदारों तक पहुँचाते देर नहीं लगती थी। हर आने जाने वाले व्यक्ति के माध्यम से यह समाचार अपने अन्य रिश्तेदारों तक पहुँचा दिया जाता था।

दुख के अवसर पर रिश्तेदारों को सूचना करने का दायित्व गॉव के लोगों व अन्य परिजनों का हुआ करता था। दुःख के अवसर पर शोक संदेश मुद्रित कर वितरित करना प्रचलन में नहीं था। इसे लोग अच्छा नहीं मानते थे। उनका मानना था कि सुख में आमंत्रित किया जाता है, बुलाया जाता है,पर दुख में व्यक्ति को स्वयं आना होता है। दुख के अवसर पर ही व्यक्ति की परख की जाती थी कि वह कितना व्यावहारिक व संवेदनशील है | दुख के अवसर पर शामिल न होने पर संबंधित व्यक्ति के प्रति समाज का रूख कड़ा होता था। व्यक्ति अपराध बोध से दब जाता था और किसी से नजर मिलाकर बात करने का साहस नहीं जुटा पाता था। इस स्थिति से उबरने में उसे सालों लग जाते थे।

आज सुख दुःख के हर अवसरों पर मुद्रित सूचना देने का प्रचलन बढ़ चला है पर इससे सामाजिक सरोकार नहीं बढ़ा है। अब सामाजिक सरोकार सिमटता जा रहा है। पीड़ित व्यक्ति को ही सारी व्यवस्थाएं करनी पड़ती है| व्यक्ति केवल औपचारिकतावश व लोक लाज के कारण उपस्थित भर होते हैं| चेहता दिखाकर पलल्‍ला झाड़ने में लोग माहिर हो गए हैं। आचरण में यह गिरावट किसी विकट संकट का सूचक है।

वल्‍लभ डोंगरे द्वारा बुक "पवारी परम्पराए एवं प्रथाए"


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