Sunday, 17 November 2024

पवार-कूरावलि नामदेवराव सोनवाने अमरावती

 

पवार-कूरावलि                                                                               नामदेवराव सोनवाने अमरावती

(भूतपूर्व महासचिव, पदार युवक सं. नागपुर)

पवार यह वह जाति है जिसे पुआर, पंवार, पोवार, भोयर-पवार आदि समय परिवर्तन के साथ अनेक पर्यायी नामों से संबोधित किया गया। प्राचीन काल में प्रमार से पवार नामान्तर होने की संभावना कुछ इतिहासकारों ने बताई है। सुर्यवंशी तथा चंद्रवंशी क्षत्रियों का परशुराम द्वारा संहार करने के पश्चात भारतवर्ष पूर्णतया असुरक्षित हो चुका था। इन परिस्थितियों में ऋषि, महामुनियोंने भय से छुपे हुये क्षत्रियों को इकठ्ठा कर माऊंट आबू पर महायज्ञ किया एवम् अग्नि पूजा तथा मंत्रोपचार से क्षत्रियों की नई शक्ति उमारी। उन्हे अग्निवंशी क्षत्रिय कहा गया । इन्हे चार शाखाओं में विभक्त किया गया। यह चार शाखायें है पंवार, चौहान, सोलंकी तथा परिहार । पवार प्रारम्भ में सम्पूर्ण भारतवर्ष में फैले हुये थे तथा सत्ताधारी थे। बाद में धार, देवास तया सभिपस्त राजस्थानी इलाके में धनी आबादि में बस गये। चक्रति सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य से हर्षवर्चन / अशोक तक तथा प्रथम विक्रमादित्य से वर्तमान धार-देवास के राजपरिवारों तक अनेक राजा हुये। कुछ नृपों ने खासकर विक्रमादित्य, भोजदेव, मुंजदेव, जगदेव आदि विशाल लोकप्रियता जित की थी। कहते है जगदेव ने नगरधन में सर्वप्रथम सुभेदार का पद सम्हाला था तथा बाद में अपने आप को राजा घोषित कर तत्कालिन नादिनिवर्धन नामक इस नगरी को राजधानी बनाई पी। इसी दौरान भारी संख्या में पवार विदर्भ के ग्रामों में भेज उन्हे ग्राम प्रमुख बनाया था। बाद में महम्मद घोरी के अतिक्रानों से तंग आकर भारी मात्रा में पवार इस क्षेत्र म आये। इधर आकर पवार दो खेमों में क्रमशः पवार (पंवार या पोवार) एवम् भोयर पवार में बट गये। पवार कुल ३६ कूरों (उपनाम / आडनाव) के है तथा भोयर पवार ७२ कूरों के हैं। कूरों की गोत्र जैसी परिधि है अतः एक ही कूर के परिवारों के बीच लड़का- लड़की व्याही नही जाती। पटेल, पवार, पंवार, देशमुख, पाटील, पारस्कर, सागर, वडस्कर तथा इसी तरह के कूर बाद में धारण किये गये हैं। कुछ कूरों का कालचक्र के अनुरूप अपभ्रंश हुआ है। कुछ कूरों को जानबूझकर तोड़-मरोड़ कर बदल दिया गया है। सर्व साधारण जानकारी हेतु करावलि प्रस्तुत हैं।

-: कूरावली:-

अंबुले, आगरे, ओंकार, , एडे (पंवार / एड़ेकर) कटरे, (शेंडे/देशमुख),

कडवे, करदाते (दाते), कसारे (कसई/केसाई), कसलीकर, करंजकर, कालभूत/कालभोर, कामडी, किनकर, कुईके, कोरडे (कोडले), कोल्हे,

खवसे (खौसी), खपरे (खापरे), खसारे, खरपुसे/ खुसखुसे,

गौतम, गाडगे, गाकरे, गाडरे, गधडे (काटोले) गिन्हाळे (गि-हारे), गोहेते (गोहिते, गोयते), गोरे ,दुखी, दुर्वे, घागरे, घोंडी, चिकणे ( चकनार / चिकाणे / पवार) ,  चोपडे चौधरी, चव्हान, जैतवार टेंभरे, टोपले,

ठवळे, ठाकरे (ठाकुर),

डहारे (पवार), डिगरसे, (दिगरसे), डोबले, डोंगरे/ डोंगरदिये, डाला, देशमुख

ढोले, ढोबाळे, (ढोबळे / ढबाले), , डंढारे

तुरकर (पंवार),

देवासे , देशमुख,

धारपुरे, धोटे, धंडारे (पवार)

बैरागडे, बघेले, बिसेन, (बिसने) बोपचे,

बन्नगरे, (बडनागरे, नागर). बरखेड़े, बारंगे (बारंगा), बैंगणे, बोवाडे, (बुआडे), बोबडे

बारबोहरे,

पटले (पटेल/पाटील,) (देशमुख) परिहार पुंड (पुंडे) पारधी (पारधे / पारसकर) पराडकर, पठाड़े, पाठे, पिंजारे, (पिंजरकर), पेंधे, फरकाड़े ,फरिदा,

भुईन्हार, भादे, भुसारी, भैरम, (कालभैरव), भोयार, भगत (भक्तवर्ती), भोंगडे,

माटे, मानमोडे मुन्ने,

रमधम, राहांगडाले, राणे, रिनायत, राऊत, (रावत) (रणझार, रणदिया, रहेमत), रबड़े

लाडले , लबाड ,लोखंडे, राऊत,

शरणागत, शेरके,

सोनवाने, सहारे, सवाई, सरोदे हरिणखेडे, हनवत, हजारे, हिंगवे,  क्षिरसागर (सागर),

नाड़ीतोड़,

 

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Justification

क्षत्रिय पवार (भोयर पवार) जाति के गोत्र एवं उनके अपभ्रंश

भोयर पवार, जिन्हें भोयर या पवार के नाम से भी जाना जाता है, एक क्षत्रिय (राजपूत) जाति है। हिंदू वैदिक वर्ण व्यवस्था के अनुसार, यह जाति क्षत्रिय वर्ण में आती है। ये विशुद्ध रूप से मालवा के राजपूतों के वंशज हैं, जो राजस्थान, गुजरात, सिंध और भारत के अन्य क्षेत्रों से प्रवास करके मालवा में आकर बसे थे। इनका मुख्य निवास मध्य प्रदेश के बैतूल, छिंदवाड़ा और पांढुर्णा जिलों में, तथा महाराष्ट्र के वर्धा और नागपुर जिलों में है। 16वीं से 18वीं शताब्दी के दौरान, ये मालवा से बैतूल की ओर प्रवासित हुए और वहाँ से धीरे-धीरे छिंदवाड़ा, पांढुर्णा और वर्धा जिलों में जाकर बस गए। भोयर पवार जाति में कोई उपजाति नहीं है, लेकिन इनमें 72 गोत्र हैं, जिनके भीतर ही ये विवाह करते हैं।

 

भोयर पवारों के गोत्र इस प्रकार हैं:

1. बारंगिया / बारंग्या / बारंगा / बारंगे

2. बागवान / भोयर / भुईहार

3. बोगाना / बोगा / बैंगने

4. बरखेड़िया / बरखाड्या / बरखेडे / बरखाडे / वरखाडे

5. बारबुहारा / बारबुहारे

6. बड़नगरिया / बड़नगरया / बडनगरे / बन्नगरे / नागरे

7. भादिया / भादय्या / भादया / भादे / भादेकर

8. बोबाट / भोभाट / भोभटकर / बोभाट / बोभाटकर

9. बोबड़ा / बोबड्या / बोबड़े / बोबाड़े

10. बुहाड़िया / बुवाड्या / बोवाड्या / बुआड्या / भोहाड्या / बुवाडे / बोवाड़े / बोआड़े / भोहाडे

11. बरगाड़िया / बिरगड्या / बिरगड़े / बिरगाड़े / बिरखाड़े / वीरगाड़े / वीरखाड़े / वीरखड़े / बिडगड़े / बिसेन

12. चोपड़िया / चोपड्या / चोपड़े / चोपड़ा / चोपाडे

13. चौधरी

14. चिकानिया / चिकनिया / चिकन्या / चिकान्या / चिकने / चिकाने / चनखार / चनखर / चकनार / चखनर

15. ढुंढारिया / डंडारे / डंढारे / डंडाले / दंडाले

16. डालू / डाला / डहारे / डाले / डकारे

17. देवासिया / देवास्या / देवासे

18. देशमुख

19. धारफोड़िया / धारपुरे / धारफोड़े  / धारे

20. ढोटा / ढोटया / धोटे / ढोटे

21. ढोंडी

22. ढोबारिया / ढोबारया / डोबारया / ढोबले / ढोबाले / ढोबारे / डोबले / डोबाले / डोबारे,

23. ढोलिया / ढोल्या / ढोले

24. डिगरसिया / डिगरस्या / डिगरसे / डिगर्से / डिग्रसे / दीग्रसे

25. डोंगरदिया / डोंगरया / डोंगरदिए / डोंगरे / डोंगरदे / डोंगरकर / डोंगरदेव

26. दुखी / दुर्वे / दु:खी / दुख्खे

27. फरकाड़िया / फरकाड्या / फरकाड़े / फरकासे / फरखासे / फरकसे

28. गाड़किया / गाखरे / गाकरे

29. गागरिया / गागड़े  / गाडगे / गागरे /  आगरे

30. गाडरी / गाडरया / गडरे / गधडे / गद्रे / गादड़े / गाडरे / काटोले / काटवले

31. घागरे

32. गिरहारिया / गिरहारया / गिरहारे / गिरारे / गिराले / गुसाई

33. गोंदिया

34. गोहितिया / गोहित्या / गोहिते / गोहते / गोयरे / गोहिता / गोहाटे / गोयते

35. गोरिया / गोरया / गोरे

36. हजारिया / हजारया / हजारे

37. हिंगवा / हिंगवे

38. कालभोर / कालभूत्या / कालभूत / कालभौर

39. करदातिया / करदात्या / करदाते / दाते

40. कड़वा / कड़वे / कड़वेकर / कडू / कडूकर

41. कामड़ी

42. कसाई / कासलीकर / कसारे / कास्लेकर / खसारे / केसलीकर

43. खौसी / खौसे / खवसे / खवासे / कौशिक / खवशिक

44. खपरिया / खपरया / खापरे / खपरे / खपरिए

45. खरगोसिया / खारफुसे / खुसखुसे / खरफसे

46. किरंजकर / करंजकर

47. किनकर / किनेकर / किंकर

48. कोड़िलिया / कोड़ल्या / कोड़ले / कोरडे

49. लबाड़ / लबड़े

50. लावरी

51. लाडकिया / लाडके

52. लोखंडिया / लोखंड्या / लोखंडे

53. माटिया / माट्या / माटे

54. मानमोड़िया / मानमोड्या / मानमोड़े / मानमुड़े

55. मुनी / मुन्ने / मुने

56. नाडीतोड़

57. उकार / ओंकार / ओमकार

58. पठाडिया / पठाड्या / पठाडे / राखड़े

59. पड़ीयार / परिहार / पराड़ / पड्याड़ / पड़िहाड़ / पड़ीमार / प्रतिहार /  पराड़कर

60. पाठा / पाठे / पाठेकर / पथे

61. पिंजारा / पिंजारया / पिंजारे / पिंजरा / पिंजरे / पिंजड़े / पिंजरकर

62. रावत / राऊत

63. रबड़िया / रबड्या / रबडे / राबडे

64. रमधम / रमधने

65. रोलकिया / रोड़ल्या / रोडले

66. सरोदिया / सरोदया / सरोदे / सरोदा

67. सवाई

68. शेरकिया / शेरक्या / शेरके / छेरके

69. टावरी / ठवरी / ठवरे / ठवले

70. ठुस्सी

71. टोपरिया / टोपल्या / टोपले

72. उकड़लिया / उकड़ल्या / उकड़ले / उधड़े / उकंडे / उकड़ते / उकर्ले / उघड़े

 

कुछ अतिरिक्त अपभ्रंश जिनका मूल गोत्र मालूम नहीं है - कुहिके, भुसारी, पेंधें, भोंगाड़े। ये चार गोत्र भी पवारों के 72 गोत्रों में से कुछ गोत्रों के अपभ्रंश हैं, किंतु यह किस गोत्र के अपभ्रंश हैं और इनका मूल गोत्र क्या है, यह ज्ञात नहीं है। यह शोध का विषय है और इस पर शोध जारी है।

 

पवार जाति केवल ऊपर दिए गए 72 गोत्रों तक सीमित है। इन 72 गोत्रों के अलावा पवार जाति में कोई अन्य गोत्र नहीं है। पुराने ग्रंथों और लेखों में, उस समय पवारों के बारे में सीमित जानकारी या जानकारी के अभाव के कारण, गोत्रों की सूची में कई त्रुटियां हुईं। परिणामस्वरूप, ऐसे कई गोत्र भी सूचीबद्ध कर दिए गए जो वास्तव में पवार जाति से संबंधित नहीं हैं।

 

जैसा कि हमने अब तक पवारों के गोत्रों की सूची में देखा है, समय और स्थान में बदलाव के चलते पवारों के गोत्रों के कुछ अपभ्रंश भी हुए हैं। गोत्रों के अपभ्रंश होने के पीछे कई ऐतिहासिक, भौगोलिक और भाषाई कारण रहे हैं। कुछ प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं:

 1. मालवा से सतपुड़ा क्षेत्र में माइग्रेशन :

   - 16वीं से 18वीं शताब्दी के बीच मालवा के पंवार राजपूत सतपुड़ा के बैतूल, मुलताई, और विदर्भ के क्षेत्रों में आकर बसे। 

   - इस प्रवास के दौरान गोत्रों के उच्चारण और लिखने के तरीके में बदलाव हुए। 

   - बैतूल (मुलताई) से पांढुर्ना, सौसर, और छिंदवाड़ा की ओर जाने वाले पंवारों के गोत्र में स्थानीय भाषाओं के प्रभाव से अपभ्रंश हुआ। 

2. मराठी भाषा का प्रभाव :

   - महाराष्ट्र के निकटवर्ती क्षेत्र (पांढुर्ना, कारंजा, नागपुर) में मराठी भाषा का प्रभाव गोत्रों के नामों पर पड़ा। 

   - उदाहरण: 

     - बारंगिया बारंगा बारंगे

     - चोपड़िया चोपड़ा चोपड़े 

   - मराठी भाषा में उच्चारण और व्याकरण के कारण हिंदी गोत्रों को मराठी शैली में लिखा और बोला जाने लगा।

 3. अंग्रेजी में लिखने के कारण परिवर्तन :

   - गोत्रों को जब अंग्रेजी में लिखने की प्रक्रिया शुरू हुई, तब उच्चारण और वर्तनी में बदलाव आया। 

   - उदाहरण: 

     - Chopde (चोपड़े) Chopade

     - उच्चारण में "चोपाडे" जैसा स्वरूप प्रचलित हो गया। 

   - इसी प्रकार अन्य गोत्रों में भी अंग्रेजी लिप्यंतरण के कारण बदलाव देखा गया।

 4. भाषाई और व्याकरणिक प्रभाव :

   - हिंदी और मराठी व्याकरण के भिन्न नियमों और क्षेत्रीय शब्दों के उपयोग के कारण गोत्रों में परिवर्तन हुआ। 

   - उदाहरण: 

     - हिंदी के शब्दों में जहां "अ" का प्रयोग होता था, मराठी में "ए" या "आ" का प्रयोग किया जाने लगा। 

     - जैसे: 

       - चिकाणे चिकाने 

       - पठाड़िया पठाड़े 

अन्य कारण: 

- स्थान-विशेष के प्रभाव: 

  क्षेत्रीय उच्चारण के अनुसार गोत्रों के नामों का स्थानीय रूपांतरण हुआ। 

  - जैसे, मुलताई में "डोंगरिया", नागपुर में "डोंगरे", और छिंदवाड़ा में "डोंगरड़े" या "डोंगरदीवे" 

- सामाजिक पहचान और स्वीकृति: 

  समुदायों ने स्थानीयता के साथ अपनी पहचान को जोड़ने के लिए गोत्रों के नाम में छोटे-छोटे बदलाव स्वीकार किए। 

निष्कर्ष : 

गोत्रों में परिवर्तन एक स्वाभाविक प्रक्रिया थी, जो मुख्य रूप से माइग्रेशन, भाषाई प्रभाव, और अंग्रेजी लिप्यंतरण से प्रभावित हुई। यह पंवार समाज के सामाजिक और सांस्कृतिक अनुकूलन का प्रमाण है।

 

अध्ययन का महत्व:

पंवार समुदाय के गोत्रों के इस विकास और बदलाव को समझना न केवल उनके इतिहास को संरक्षित करने का माध्यम है, बल्कि उनके सामाजिक, सांस्कृतिक और भाषाई प्रभावों का अध्ययन भी है। यह अध्ययन इस बात को रेखांकित करता है कि कैसे भाषाई और भौगोलिक परिवर्तन किसी भी समाज की पहचान को प्रभावित कर सकते हैं।

 

REFERENCES:

1.   Panwar Samaj: Ek Sinhavlokan. (1984). Dr Dyneshwar Tembhare *Panwar Sandesh*, 16-18.

2.   Panwar Kul Dardhan. (1985). In Krishnarav Balaji Panwar (Ed.), *Panwar Sandesh*, 21-22.

3.   Bhojpatra. (1986). In Pannalal Bisen (Ed.), *Bhojpatra*, 12-14.

4.   Avasthi, Manju. (1995). Balaghat jile ki jan boliyo ka bhashavaizyanik avam sanskritik adhyayan (pp. 593-594).

5.   Genealogy author- Madansingh ji Morsingh Barwaji, Mu. Singapura Post- Galwa, Via Kosithal, District- Bhilwara, Rajasthan (available in Bhoj Patrika published by Bhopal Pawar samaj sangthan).

6.   Dr Dyneshwar Tembhare. (2014). Pawari gyandeep (2nd ed.). Himalaya publishing house, Mumbai.

7.   Vallabh Dongre (2013) Sikho sabak Pawaro, Satpuda Sanskriti Sansthan Bhopal.

8.   Pushtak Mera Betul. (2022). (n.p.): BFC Publications.

9.   Singh, K. S. (1998). India's Communities. India: Anthropological Survey of India.

10. Singh, K. S. (1996). Communities, Segments, Synonyms, Surnames and Titles. India: Anthropological Survey of India. 1155

11. Rajesh Barange Pawar. (2017, July 6). Surnames In Pawar Community Bhoyar Pawar बैतूल, छिंदवाड़ा, वर्धा, पवार गोत्र. https://rajeshbarange.blogspot.com/2017/07/surnames-in-pawar-community-bhoyar.html

12. Genealogy author- Rajkumar Sorath, Umaranala, Chhindwara, Madhya Pradesh, India.

13. Rajesh Barange Pawar, M. T. S. S. (2024). Kshatriya Pawar (72 clan): Journey from Malwa to Satpura (01 ed., Vol. 01) [English]. laplambert publishing.

14. The Central Provinces of India, 1901, 1911, 1921and 1931 Census.

 

शोधार्थी & लेखक

राजेश बारंगे पंवार Rajeshbarange00@gmail.com ,

प्रणय चोपड़े pranaychopde123@gmail.com

राजेश बोबडे rajeshbobade10@gmail.com

माँ ताप्ती शोध संस्थान, मुलताई

maa.tapti.shodh.sansthan@gmail.com

 

 

 

 

 

Thursday, 10 October 2024

बैनगंगा तथा वर्धा तटीय पवार समुहों में वैवाहिक सम्बन्धो के पुख्ता प्रमाण

 मॉं ताप्ती शोध संस्थान मुलताई जिला - बैतूल (म. प्र.)

 दि. २५-११- २०२३ 

शुभ संदेश 

परमार कालीन संस्कृत ग्रंथ (भविष्य पुराण, भागवत पुराण, स्कंध पुराण, परसुराम संहिता, नवसहसांक, तिलक मंजिरी आदि) तथा शिलालेख (उदयपुर, कालवन, मांधाता आदि : अमरचंद मित्तल, १९७९ - "परमार अभिलेख") जो भी प्राप्त हुएं हैं उन में प्रमर, प्रमार, परमार, पवाम, पवार आदि अग्निकुंड से प्रकट शूरवीर एवं उसके वंश के नाम मिलते हैं। कहीं भी पंवार या पोवार नामक शूरवीर अग्निकुंड से उत्पन्न हुआ, ऐसा लिखा हुआ नही मिलता। जब मालवदेश में संस्कृत की जगह प्राकृत से उत्पन्न अनेक लोक भाषाओं ने ली, राजस्थानी, मारवाड़ी तथा स्थानीय बोलियों का प्रचार बढा तो पवार का पॅंवार/पंवार नाक दबाकर बोलने (उच्चारण) के कारण बदल हुआ। मुग़ल काल में यह संज्ञा फारसी, उर्दू के प्रभाव से दृढ़ हुई। पोवार तो केवल बैनगंगा क्षेत्र में आने के बाद स्थानीय गोंडी, झाड़ी, मराठी आदि बोलियों के दुष्परिणाम का अपभ्रंश है।

 सतपुडा अंचल में स्थानांतरण पूर्व धार के कुछ पंवार सरदार पश्चिम महाराष्ट्र आये, छत्रपति शिवाजी की फ़ौज में भर्ती हुए, पेशवाई में फिर धार (आनंदराव पवार) देवास (उदोजी पवार) के राजा बने। वे अपने वंश को पंवार की अपेक्षा पवार कहते गर्व करते हैं। आज पंवार तो केवल राजपूत जाति का एक वंश के रुप में पहचाना जाता हैं। आज राजपूत तथा पवार दोनो भिन्न जातियॉं हैं। कुछ ब्रिटीश कालीन अंग्रेज अफसरों ने बिना सखोल छानबीन किए, जाने अनजाने में हमें पंवार संबोधित किया। तत्कालीन हमारे कुछ शिक्षित पुरखों ने देखासिखी के चक्कर में पंवार लिखने लगे सो हम बांधिल होकर क्यूं स्वीकार करें? पंवार संज्ञा स्विकार कर भी लें तो पवार संज्ञा से तिरस्कार क्यों करें? कुछ हमारी जाति के विद्वान आजकल विक्रमादित्य और भोज को भी पोवार लिख कर गलत प्रचार कर रहे है। वे मुलतया प्रमर, परमार है।

 परमार काल में पोवार नाम का शब्द या जाति ही नही पैदा हुई थी सो ये महापुरुष "पोवार" कैसे? औरंगजेब के अंतिम काल में जब हम मालवा से बैनगंगा क्षेत्र आये और तत्कालीन गोंडवाना प्रदेश में बसे तो पवार के पोवार हुए (जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन, १९१६, रसेल एवं हीरालाल (१९१६)। इन लोगों ने अपने साथ अपनी मातृभाषा पवारी लाई जो पवारी, पोवारी, भोयरी बोली नाम से जानी जाती हैं (विमलेश कांति वर्मा, १९९५, गणेश देवी, २०१३,अनिक गंगोपाध्याय,२०२०). दशरथ शर्मा ने पंवार वंश दर्पण किताब में परमार/पंवारो की ३५ शाखायें दी हैं, उनमें एक पवार है, वे ही बादमें पोवार कहलाये। इन पवारों की मूल ३६ शाखायें (कुल/उपगोत्र) हैं किंतु बैनगंगा क्षेत्र में केवल ३० ही आये। डाला, रावत, फरीद, रंजहास, रहमत, रंदिवा मालवा में ही ठहर गये (शेरिंग, १८७९)। वर्धा तटीय भोयर पवार भी इसी पवार शाखा के ७२ कुलीन पवार हैं तथा हममें और उनमें वैवाहिक रिश्ते तो इधर स्थानांतरण होने पूर्व से ही मालवा में थे 

इसके प्रमाण हैं। बैनगंगा तथा वर्धा तटीय पवार समुहों में वैवाहिक सम्बन्धो के पुख्ता प्रमाण - बैनगंगा तथा वर्धा तटीय पवारों में वैवाहिक सम्बन्धो के पुख्ता प्रमाण भाटों के पोढियों से उजागर होते हैं। ऐसा ही एक प्रमाण श्री रामकृष्ण डोंगरे, उमरानाला, जिला छिंदवाड़ा म.प्र. ने उनके पुस्तैनी भाट श्री राजकुमार सारोठजी की पोथियों में पाया हैं।

 उसे नीचे प्रकट किया जा रहा है - इतिहासकारों के अनुसार बैनगंगा तथा वर्धा तटीय पवार समुह औरंगजेब के अंतिम काल (अनुमानित १६८०-१७०० ईस्वी) में मध्यभारत के गोंडवाना क्षेत्र (वर्तमान विदर्भ - महाकौशल) में आये तथा देवगढ़ के गोंड राजा बख्त बुलंद शाह, बाद में उसका पुत्र चांद सुल्तान, नागपुर तथा रघुजी राजा भोसले, नागपुर की सेना में अपने शौर्य से उन्होंने खुप शोहरत पाई। स्थानांतरण पूर्व धार में प्रताप सिंह डोंगरदीया (डोंगरे) रहते थे।

 वे धार के सुबेदार राजा गिरधर बहादूर की सेना में ऊंचे पद पर नियुक्त थे। प्रतापसिंह के कारुसिंह तथा महाप्रयाग सिंह दो बेटे थे। दोनो ने मुस्लीम सेना के खिलाप अनेक लड़ाइयां लड़ी और अलौकिक वीरता के लिए मशहूर हुए। महाप्रयाग सिंह को कारुसिंह का विवाह रुपलाबाई से हुआ। 

वह आंबुलिया (अम्बुले) कुल की थी। कालुसिंह को नांददेव पुत्र हुआ। नांददेव को सुमन सिंह पुत्र हुआ। सुमनसिंह धार के राजा दया बहादुर के वजीर थे।

 वे मुसलमानों द्वारा किए गये आक्रमण में लड़ते हुए मारे गये। सुमन सिंह की पत्नी सुनीता बाई जैतवार कुल की कन्या थी। उनके तीन पुत्र हुए - १. नारुदेव, २. वीरदेव तथा ३. गोरदेव। वे देवगढ़ के तत्कालिन गोंड राजा के फ़ौज में भर्ती हो गये तथा कुछ काल पश्चात् उनके वंशज बैतूल जिले के गांवों की वतनदारी प्राप्त कर स्थायीक रुप से बस गये।

 हमारे समाज के नेताओं ने अखिल भारतीय पंवार क्षत्रिय महासभा अधिवेशन १९६४-६५ में बैनगंगा तथा वर्धा क्षेत्र के दोनो समुहों का मिलन किया, नि:संदेह वह इतिहासिक, सांस्कृतिक, भाषाई निकषोंपर गहरे चिंतन मंथन से किया हैं। 

इस सामाजिक मिलन के पक्षधर हमारे तत्कालीन सांसद, विधायक, समाजसेवी तथा बुद्धिजीवी थे। -राजेश पवार, संचालक माँ ताप्ती शोध संस्थान मुलताई, जिला- बैतूल

Tuesday, 12 March 2024

पवारों में दुःख में दायित्व बोध की दरकार

 पवारों में दुःख में दायित्व बोध की दरकार


पवारों में सामाजिक सरोकार इतना प्रबल होता है कि सुख-दुःख के अवसरों पर एक-दूसरे रिश्तेदारों को सूचित करना मानो उनका अपना दायित्व हो।| दुःख के अवसर पर खबर आग की तरह फैलते देर नहीं लगती थी। पक्षियों में जैसे एक कौआ कॉव-कॉव करके सबको खबर करके एकत्रित कर लेता है, ठीक ऐसे ही पवारों में सबको सूचित करके एकत्रित कर लेने की प्रथा है। अधिकांश पवार जन कृषि कार्य से जुड़े होने से गाँवों में रहते हैं| आज मोबाइल का जमाना है,खबर पहुँचते देर नहीं लगती | परन्तु जब मोबाइल नहीं थे तब भी खबर पहुँच जाती थी और सब रिश्तेदार एकत्रित हो जाते थे। हाट-बाजार में मिले रिश्तेदारों को या एक गॉव से दूसरे गॉव जा रहे गाँव के व्यक्ति के माध्यम से उस गाँव में रह रहे रिश्तेदारों को सूचना प्रेषित कर दी जाती थी।

गॉव के लोगों में भी परस्पर इतना प्रेम और भाईचारा होता था कि सब एक दूसरे के रिश्तेदारों को जानते थे और जहा भी मिले राम-राम कहकर एक दूसरे की खबर लिया करते थे | और न केवल खबर लिया करते थे अपितु संबंधित व्यक्ति के घर जाकर उनके रिश्तेदार द्वारा प्रेषित संदेश उन तक पहुँचाना अपना धर्म समझते थे | आश्चर्य की बात तो यह है कि सुख के अवसर पर भी कोई निमंत्रण मुद्रित नहीं किए जाते थे। जिस व्यक्ति के घर कोई शादी विवाह होता था उस घर का सदस्य अपने रिश्तेदारों के घर जाकर उनके दरवाजे पर हल्दी में रंगे चावल रखकर कार्यकम की मौखिक सूचना भर दे देता था। कई बार सदस्य घर पर मिल जाते थे, कई बार घर पर बच्चे या कोई वृद्ध व्यक्ति होता था उसे ही सूचना दे दी जाती थी। शाम को जब परिजन अपने खेत से घर लौटते तब दरवाजे पर रखे चावल के दाने देखकर वे खुशी से उछल पड़ते थे और घर में उपस्थित सदस्यों से कार्यकम की विस्तृत जानकारी ले लिया करते थे | इस खबर को अपने अन्य रिश्तेदारों तक पहुँचाते देर नहीं लगती थी। हर आने जाने वाले व्यक्ति के माध्यम से यह समाचार अपने अन्य रिश्तेदारों तक पहुँचा दिया जाता था।

दुख के अवसर पर रिश्तेदारों को सूचना करने का दायित्व गॉव के लोगों व अन्य परिजनों का हुआ करता था। दुःख के अवसर पर शोक संदेश मुद्रित कर वितरित करना प्रचलन में नहीं था। इसे लोग अच्छा नहीं मानते थे। उनका मानना था कि सुख में आमंत्रित किया जाता है, बुलाया जाता है,पर दुख में व्यक्ति को स्वयं आना होता है। दुख के अवसर पर ही व्यक्ति की परख की जाती थी कि वह कितना व्यावहारिक व संवेदनशील है | दुख के अवसर पर शामिल न होने पर संबंधित व्यक्ति के प्रति समाज का रूख कड़ा होता था। व्यक्ति अपराध बोध से दब जाता था और किसी से नजर मिलाकर बात करने का साहस नहीं जुटा पाता था। इस स्थिति से उबरने में उसे सालों लग जाते थे।

आज सुख दुःख के हर अवसरों पर मुद्रित सूचना देने का प्रचलन बढ़ चला है पर इससे सामाजिक सरोकार नहीं बढ़ा है। अब सामाजिक सरोकार सिमटता जा रहा है। पीड़ित व्यक्ति को ही सारी व्यवस्थाएं करनी पड़ती है| व्यक्ति केवल औपचारिकतावश व लोक लाज के कारण उपस्थित भर होते हैं| चेहता दिखाकर पलल्‍ला झाड़ने में लोग माहिर हो गए हैं। आचरण में यह गिरावट किसी विकट संकट का सूचक है।

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पवारों में बहन-बेटी-बहू के चरण स्पर्श

 बहन-बेटी-बहू के चरण स्पर्श पवारों में बहन, बेटी-बहू के चरण स्पर्श करने की प्रथा है। बहन, बेटी-बहू के चरण स्पर्श करने के पीछे यही भावना होती है कि उनके प्रति व्यक्ति के मन में कुभाव उत्पन्न न हो। घर की बहन, बेटी व बहू सदैव पवित्र बनी रहे ताकि उनकी कोख से जन्म लेने वाली पीढ़ियाँ सदैव पवित्र व पावन उत्पन्न हो सके | 

हर शुभ अवसर पर बहन, बेटी व बहू के चरण स्पर्श करके व्यक्ति उनके प्रति अपने मन में सम्मान की भावना बनाए रखने के प्रति संकल्पबद्ध होता है। बहन के चरण स्पर्श कर भाई, बेटी-बहू के चरण स्पर्श कर बाप और ससुर बेटी-बहू के प्रति अपने मन में सम्मान भावना संजोता है और उनकी रक्षा के लिए प्रतिज्ञाबद्ध होता है।

 भाई बहन के चरण स्पर्श कर उसकी रक्षा के प्रति प्रतिज्ञाबद्ध होता है। बहन भी अपने भाई के चिरायु होने की कामना करती है। बेटी के विवाह अवसर पर पिता अपनी बेटी के चरण स्पर्श कर उससे आशीर्वाद की कामना करता है कि उसके जाने के बाद भी पिता का घर भरापूरा रहे और वह जिस घर जा रही है वह भी धन-धान्य से सम्पन्न हो जाए | 

अपने बेटे के लिए बहू लाते समय भी ससुर अपनी होने वाली बहू के चरण स्पर्श कर उससे इसी तरह के आशीर्वाद की कामना करता है कि उसके आगमन से वर और घर दोनों सुखी सम्पन्न हो जाए | बहू ही कुल के उत्तराधिकारी की जन्मदात्री होती है जिसपर वंश परम्परा निर्भर होती है और आगे भी चलती है, इसलिए वह भी पूज्य होती है। 

इस क्षेत्र का भुजलिया पर्व बेटी-बहन के सम्मान का प्रतीक पर्व और सावन गीत बहन व बहू के सम्मान का प्रतीक गीत है। इस सावन गीत के माध्यम से बहन और बहू अपने मायके से मिलती और जीने का संबल प्राप्त करती हैं। इस क्षेत्र में बेटी की विदाई उत्सव है, पर्व है। 

बेटी का घर आना आनंद है, त्योहार है | बेटी जब ससुराल से घर आती है तो उसका बड़ा आदर-सत्कार किया जाता है। इसका एक पृथक से पूरा पर्व ही है भादो माह में महालक्ष्मी ज्येष्ठा और कनिष्ठा दोनों बहनें पुत्री के रूप में मायके आती हैं और ढाई दिनों तक मायके में रहती हैं। 

विदाई के दिन सारा घर उदास हो उठता है। बेटी के प्रति इतना सम्मान अन्यत्र दुर्लभ है। इस क्षेत्र में बेटी के प्रति इतना प्रेम होता है कि उसे शब्दों में अभिव्यक्त कर पाना संभव नहीं है| यही कारण है इस क्षेत्र में कन्या भ्रूण हत्या का अभी तक एक भी प्रकरण सामने नहीं आया है। साथ ही इस क्षेत्र में बेटी को बेटे के बराबर दर्जा व सम्मान दिया जाता है।


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पवारों में पैर पूजा

 पवारों में पैर पूजा


पवारों में पैर पूजे जाते हैं सिर नहीं | पैर आचरण, हृदय, श्रद्धा और आस्था के प्रतीक हैं। सिर ज्ञान का प्रतीक है। सिर का उठना अंहकार का प्रतीक है। सिर उठे नहीं इसलिए पवारों में पैर पूजने का प्रचलन चल पड़ा | घर के बड़े-बूढ़ों के पैर छूने की परम्परा उनके प्रति सम्मान भावना का प्रतीक है। उनके आगे हमारा अंहकार सिर न उठा पाए इसलिए उनके आगे सिर झुकाया जाता है। संबंधित की मृत्यु होने के उपरांत भी पवारों में पैरों को प्रतीक के रूप में पूजे जाने की प्रथा है| किसी प्रियजन की मृत्यु के बाद उसकी प्रतिमा स्थापित करने के स्थान पर प्रतीकात्मक रूप से उसके पैर स्थापित किए जाने की प्रथा है जिसे थापना कहा जाता है। सामान्यतः यह थापना मिट्टी व पत्थर का बना चबूतरा होता है। अब मिट्टी व पत्थर के चबूतरे के स्थान पर ईंट सीमेंट का पक्का चबूतरा बनाने का प्रचलन भी चल पड़ा है। सामान्यतः यह थापना मृतक के सबसे प्रिय खेत, पेड़ व अन्य किसी स्थान आदि पर स्थापित किया जाता है जिसपर प्रतीकात्मक रूप से दो पैर बने होते हैं।


पितृ पक्ष में पूरे पक्ष भर पितरों के प्रतीकात्मक रूप से पैर ही उकेरे व पूजे जाते हैं। मृत्यु के उपरांत भी पितरों के प्रति यह सम्मान भावना बच्चों को संस्कारित करती है और वे भी अपने माता-पिता के प्रति सम्मान से भर उठते हैं।


हर तीज-त्योहार और खुशी के अवसर पर बड़े-बूढ़ों के पैर छूकर आशीर्वाद लेने से बच्चे भी अपने बड़े-बूढ़ों का अनुसरण करते हैं और आगे चलकर यही संस्कार का रूप ग्रहण करते हैं। घर में मेहमान आने पर एवं घर से मेहमान जाने पर उनके पैर छूकर आशीर्वाद लेने की परम्परा आज भी पवारों में जीवित है।


भरत द्वारा भगवान राम की खड़ाऊ माँगा जाना साधारण नहीं अपितु असाधारण बात है। खड़ाऊ निकृष्टतम चीज होती है। यदि व्यक्ति ने उसे ही पूज लिया तो फिर अंहकार को तो गलना ही है। राजा भरत द्वारा स्थापित मर्यादा का आज भी उसी आत्मीयता से अनुपालन करना एक प्रकार से भगवान राम के प्रति पवारों का सच्चा सम्मान प्रदर्शित करना है।


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Thursday, 15 February 2024